यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 17
ऋषिः - उत्तरनारायण ऋषिः
देवता - आदित्यो देवता
छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
348
अ॒द्भ्यः सम्भृ॑तः पृथि॒व्यै रसा॑च्च वि॒श्वक॑र्मणः॒ सम॑वर्त्त॒ताग्रे॑।तस्य॒ त्वष्टा॑ वि॒दध॑द् रू॒पमे॑ति॒ तन्मर्त्य॑स्य देव॒त्वमा॒जान॒मग्रे॑॥१७॥
स्वर सहित पद पाठअ॒द्भ्य इत्य॒त्ऽभ्यः। सम्भृ॑त॒ इति॑ सम्ऽभृ॑तः। पृ॒थि॒व्यै। रसा॑त्। च॒। वि॒श्वक॑र्मण॒ इति॑ वि॒श्वऽक॑र्मणः। सम्। अ॒व॒र्त्त॒त॒। अग्रे॑ ॥ तस्य॑। त्वष्टा॑। विदध॑दिति॑ वि॒ऽदध॑त्। रू॒पम्। ए॒ति॒। तत्। मर्त्य॑स्य। दे॒व॒त्वमिति॑ देव॒ऽत्वम्। आ॒जान॒मित्या॒ऽजान॑म्। अग्रे॑ ॥१७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अद्भ्यः सम्भृतः पृथिव्यै रसाच्च विश्वकर्मणः समवर्तताग्रे । तस्य त्वष्टा विदधद्रूपमेति तन्मर्त्यस्य देवत्वमाजानमग्रे ॥
स्वर रहित पद पाठ
अद्भय इत्यत्ऽभ्यः। सम्भृत इति सम्ऽभृतः। पृथिव्यै। रसात्। च। विश्वकर्मण इति विश्वऽकर्मणः। सम्। अवर्त्तत। अग्रे॥ तस्य। त्वष्टा। विदधदिति विऽदधत्। रूपम्। एति। तत्। मर्त्यस्य। देवत्वमिति देवऽत्वम्। आजानमित्याऽजानम्। अग्रे॥१७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! योऽद्भ्यः पृथिव्यै विश्वकर्मणश्च सम्भृतस्तस्माद् रसादग्र इदं सर्वं समवर्त्तत तस्याऽस्य जगतो तद् रूपं त्वष्टा विदधदग्रे मर्त्यस्याजानं देवत्वमेति॥१७॥
पदार्थः
(अद्भ्यः) जलेभ्यः (सम्भृतः) सम्यक् पुष्टः (पृथिव्यै) पृथिव्याः। अत्र पञ्चम्यर्थे चतुर्थी (रसात्) जिह्वाविषयात् (च) (विश्वकर्मणः) विश्वानि सर्वाणि सत्यानि कर्माणि यस्याश्रयेण तस्मात् सूर्य्यात् (सम्) (अवर्त्तत) (अग्रे) प्राक् (तस्य) (त्वष्टा) तनूकर्त्ता (विदधत्) विधानं कुर्वन् (रूपम्) स्वरूपम् (एति) (तत्) (मर्त्यस्य) मनुष्यस्य (देवत्वम्) विद्वत्त्वम् (आजानम्) समन्ताज्जनानां मनुष्याणामिदं कर्त्तव्यं कर्म (अग्रे) आदितः॥१७॥
भावार्थः
हे मनुष्याः! योऽखिलकार्यकर्त्ता परमात्मा कारणात् कार्याणि निर्मिमीते सकलस्य जगतः शरीराणां रूपाणि विदधाति तज्ज्ञानं तदाज्ञापालनमेव देवत्वमस्तीति जानीत॥१७॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जो (अद्भ्यः) जलों (पृथिव्यै) पृथिवी (च) और (विश्वकर्मणः) सब कर्म जिसके आश्रय से होते उस सूर्य से (सम्भृतः) सम्यक् पुष्ट हुआ उस (रसात्) रस से (अग्रे) पहिले यह सब जगत् (सम्, अवर्त्तत) वर्त्तमान होता है (तस्य) उस इस जगत् के (तत्) उस (रूपम्) स्वरूप को (त्वष्टा) सूक्ष्म करने वाला ईश्वर (विदधत्)विधान करता हुआ (अग्रे) आदि में (मर्त्यस्य) मनुष्य के (आजानम्) अच्छे प्रकार कर्त्तव्य कर्म और (देवत्वम्)विद्वत्ता को (एति) प्राप्त होता है॥१७॥
भावार्थ
हे मनुष्यो! जो सम्पूर्ण कार्य करने हारा परमेश्वर कारण से कार्य बनाता है, सब जगत् के शरीरों के रूपों को बनाता है, उसका ज्ञान और उसकी आज्ञा का पालन ही देवत्व है, ऐसा जानो॥१७॥
पदार्थ
पदार्थ = ( अद्भ्यः ) = जलों से और ( पृथिव्यै ) = पृथिवी से ( विश्वकर्मणः ) = समस्त संसार के कर्ता जगत्पति के ( रसात् ) = प्रेरक बल से ( सम्भृतः ) = सम्यक् पुष्ट हुआ ( अग्रे ) = सब से प्रथम जो ब्रह्माण्ड ( सम् अवर्त्तत ) = उत्पन्न हुआ ( त्वष्टा ) = वह विधाता ही ( तस्य ) = उसके ( रूपम् ) = रूप को ( विदधत् ) = विधान करता हुआ ( अग्रे ) = आदि में ( मर्त्यस्य ) = मनुष्य के ( आजानम् ) = अच्छे प्रकार कर्तव्य कर्म और ( देवत्वम् ) = विद्वत्ता को ( एति ) = प्राप्त होता और मनुष्यों को प्राप्त कराता है।
भावार्थ
भावार्थ = सम्पूर्ण संसार का जनक जो परमात्मा, प्रकृति और उसके कार्य सूक्ष्म तथा स्थूल भूतों से, सब जगत् को और उसके शरीरों के रूपों को बनाता है उस ईश्वर का ज्ञान और उसकी वैदिक आज्ञा का पालन ही देवत्व है।
विषय
मानुष जीव सर्ग ।
भावार्थ
(अद्भ्यः) जलों से और (पृथिव्यै) पृथिवी, (विश्वकर्मण:) समस्त संसार के कर्ता परमेश्वर के ( रसात् ) प्रेरक बल से (अग्ने) सब से प्रथम जो ब्रह्माण्ड (सम् अवत्तत) उत्पन्न हुआ । (त्वष्टा) वह विधाता ही (तस्य) उसके ( रूपम् ) रूप को ( विदधत् ) स्वयं विविध रूपों से धारण करता हुआ (एति) प्राप्त होता है । ( मर्त्यस्य) मरणधर्मा पुरुष के ( तत् ) उस (आजानम् ) समस्त जनों के करने योग्य कर्म और ( देवत्वम् ) दर्शन करने योग्य ज्ञान को (अग्रे) सबसे पूर्व (एति) स्वयं प्राप्त करता है । जल और पृथिवी से विश्वकर्मा जगत् स्रष्टा ने उसको बनाया स्वयं बनाने वाला 'त्वष्टा' तदनुरूप हो गया । यही उस (मर्त्यस्य ) मरणधर्मा विनाशी पदार्थ का भी (अग्रे) पहले से ही (आजानम् देवत्वम् ) जन्म से ही देव रूप है । वह स्वतः ईश्वर की दिव्य शक्ति का स्वरूप है । ‘देवत्वम्, आजानम्’—मर्त्ये देवत्वं प्रभुत्वं, आजानम् आप्तम् इत्यर्थः ( उवट: ) । पुरुषस्य विराडाख्यस्य सम्बन्धि, तत् विश्वं प्रसिद्धं देव- मनुष्यादिरूपं सर्व जगत् अग्रे सृष्ट्यादौ आजानं सर्वतः उत्पन्नम् । इति सायणः ॥ देवत्वम् विद्वत्वम् | आजानं समन्तात् जनानां मनुष्याणामिदं कर्तव्यं कर्म इति दयानन्दः । आजानदेवत्वं, मुख्यं देवत्वम् । द्विविधा देवाः । कर्मदेवा आजानदेवाश्च । उत्कृष्टेन कर्मणा देवत्वं प्राप्ताः कर्मदेवाः । सृष्ट्यादावुत्पन्ना आजानदेवाः । ते कर्मदेवेभ्यः श्रेष्ठाः । ये शतं कर्मदेवाना- मानन्दाःस एक आजानदेवानामानन्दः । तै० । उप० । इति श्रुतेः सूर्यादय आजानदेवाः ॥ इति महीधरः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आदित्यः । भुरिक् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
मन्त्रार्थ
(त्वष्टा) त्वक्षणकर्त्ता-रचयिता (सम्भृतः) सम्यक् धर्ता परमात्मा 'कर्तरिक्तश्च्छान्दसः' (अद्द्भ्यः) अन्तरिक्ष से "आप:अन्तरिक्ष नाम" (निघं० १।३) (पृथिव्यै) पृथिवी से 'पञ्चम्यर्थे चतुर्थी छान्दसी' (रसात्) जल से "रस उदकनाम" (निघ० १।१२) (च) और (विश्वकर्मण:) सूर्य से (अ) पूर्व (समवर्तत) वर्तमान था (तस्य मर्त्यस्य) उस पृथिवी आदि नश्वर जगत् के तथा (तत्-देवत्वम् आजानं रूपम्) दिव्य सूर्य आदि और समन्त रूप से उत्पन्न होने वाले मनुष्य आदि प्राणी तथा वनस्पति वाले स्वरूप को (विदधत् अग्रे-एति) विधान करता हुआ - निर्माण करता हुआ जिज्ञासुओं के सम्मुख आता है ॥१७॥
विशेष
(ऋग्वेद मं० १० सूक्त ६०) ऋषि:- नारायणः १ - १६ । उत्तरनारायणः १७ – २२ (नारा:आपः जल है आप: नर जिसके सूनु है- सन्तान हैं, ऐसे वे मानव उत्पत्ति के हेतु-भूत, अयन-ज्ञान का आश्रय है जिसका बह ऐसा जीवजन्मविद्या का ज वाला तथा जनकरूप परमात्मा का मानने वाला आस्तिक महाविद्वान् ) देवता - पुरुष: १, ३, ४, ६, ८–१६। ईशानः २। स्रष्टा ५। स्रष्टेश्वरः ७। आदित्यः १७-१९, २२। सूर्य २०। विश्वे देवाः २१। (पुरुष- समष्टि में पूर्ण परमात्मा)
मराठी (2)
भावार्थ
हे माणसांनो ! पूर्ण कर्मशील परमेश्वर कारणापासून कार्याची निर्मिती करतो व सर्व जगतरूपी शरीराचे अवयव (सृष्टितील पदार्थ) निर्माण करतो त्याच्यासंबंधी ज्ञान मिळविणे व त्याच्या आज्ञेचे पालन करणे हेच देवत्व होय.
विषय
पुनश्च, तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, जो परमेश्वर (अद्भ्यः) जलाकडून (पृथिव्यै) पृथ्वी कडून (च) आणि विश्वकर्मणः ज्याच्या आधाराने सर्व कार्य संपन्न होतात, त्या सूर्या कडून (सम्भृतः) सम्यकप्रकारे रस, वा शक्ती प्राप्त करीत आणि त्या (रसात्) रसाच्या ही (अग्ने) आदी यह सर्व जग (सम्, अवर्त्तत) विद्यमान होते. (तस्य) त्या जगाच्या (तत्) त्या (रूपम्) स्वरूपाला (त्वष्टा) सूक्ष्म करणारा ईश्वर (विद्धत्) ती सूक्ष्मीकरण क्रिया करीत (अग्ने) सृष्टीच्या आरंभीच्या काळात (मर्त्यस्य) मनुष्याच्या (आजानम्) कर्तव्य-कर्म आणि (देवत्वम्) विद्वत्ता (एति) प्राप्त करून देतो. (परमेश्वर जल, पृथ्वी, सूर्य यांच्या द्वारे सृष्टी पोषित करतो, वस्तूंना सूक्ष्म वा स्थूल करतो. आणि मनुष्याला त्याच्या कर्तव्याविषयी ज्ञान देतो. ॥17॥
भावार्थ
भावार्थ - हे मनुष्यांनो, समस्त कार्य करणारा (तो सर्व उत्पन्न सृष्टीचे कारण आणि सृष्टी ही त्याचे कार्य) कारणापासून (उपादान कारणापासून) कार्यरूप सृष्टी निर्मितो, जगातील रूपधारी आकारवान पदार्थांची रचना करतो, त्याचे यथार्थ ज्ञान होणे आणि त्याच्या आज्ञेचे पालन, हेच देवत्व आहे, असे जाणून घ्या. ॥17॥
इंग्लिश (3)
Meaning
God creates in the beginning with His urge this world nourished by waters, earth and sun. Fixing its form, He assigns in the beginning the wisdom and duties of mankind,
Meaning
Before the essence of the waters was distilled by Vishvakarma for the creation of the earth, the model of the universe existed in the eternal mind of the Purusha, Prajapati Vishvakarma. Tvashta, the maker- manifestation of Purusha, sculpted that form of the universe. The origin of the divinity of the human being too existed in the eternal mind. (That too Tvashta brought into existence. )
Translation
He existed prior to waters, the earth, the saps and the sun in His fullness. The Supreme Architect comes outlining His features. Thus the godhood of the mortal one has been known for the first time. (1)
Notes
Tvaştä, the Supreme Architect of the universe. Also, the Sun. Agre samavartata, existed prior to (the waters, the earth and the sun). Viśvakarman, विश्वानि सर्वाणि सत्यानि कर्माणि यस्याश्रयेण तस्मात् सूर्यात्,under whose protection all the genuine actions are performed, the sun.
बंगाली (2)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যে (অদ্ভ্যঃ) জল (পৃথিব্যৈ) পৃথিবী (চ) এবং (বিশ্বকর্মণঃ) সকল কর্ম্ম যাহার আশ্রয় হইতে হয় সেই সূর্য্য দ্বারা (সম্ভৃতঃ) সম্যক্ পুষ্টি লাভ করা সেই (রসাৎ) রস দ্বারা (অগ্রে) প্রথমে এই সকল জগৎ (সম্, অবর্তত) বর্ত্তমান হয় । (তস্য) সেই এই জগতের (তৎ) সেই (রূপম্) স্বরূপকে (ত্বষ্টা) সূক্ষ্মকারী ঈশ্বর (বিদধৎ) বিধান করিয়া (অগ্রে) আদিতে (মর্ত্যস্য) মনুষ্যের (আজানম্) উত্তম প্রকার কর্ত্তব্য কর্ম্ম এবং (দেবত্বম্) বিদ্বত্তাকে (এতি) প্রাপ্ত হয় ॥ ১৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! সম্পূর্ণ কর্ম্মকে করেন যে পরমেশ্বর, তিনি কারণ হইতে কার্য্য করেন, সকল জগতের শরীরের রূপকে তৈরী করেন, তাহার জ্ঞান এবং তাহার আজ্ঞার পালনই দেবত্ব, এইরকম জানিবে ॥ ১৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অ॒দ্ভ্যঃ সম্ভৃ॑তঃ পৃথি॒ব্যৈ রসা॑চ্চ বি॒শ্বক॑র্মণঃ॒ সম॑বর্ত্ত॒তাগ্রে॑ ।
তস্য॒ ত্বষ্টা॑ বি॒দধ॑দ্ রূ॒পমে॑তি॒ তন্মর্ত্য॑স্য দেব॒ত্বমা॒জান॒মগ্রে॑ ॥ ১৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অদ্ভ্য ইত্যস্যোত্তরনারায়ণ ঋষিঃ । আদিত্যো দেবতা । ভুরিক্ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
পদার্থ
অদ্ভ্যঃ সম্ভৃতঃ পৃথিবৈ রসাশ্চ বিশ্বকর্মণঃ সমবর্ততাগ্রে।
তস্য ত্বষ্টা বিদধদ্রূপমেতি তন্মর্ত্যস্য দেবত্বমাজানমগ্রে।।৭৮।।
(যজু ৩১।১৭)
পদার্থঃ ঈশ্বর (অদ্ভ্যঃ) তরল হতে উদ্ভূত করেছেন (পৃথিবৈ) পৃথিবী, জগত (সম্ভৃতঃ) এবং তরল দ্বারা পুষ্ট করেছেন শরীরকে। (বিশ্বকর্মণঃ) সমস্ত সংসারের নির্মাতা জগৎপতির (রসাৎ) প্রেরিত আদিরসরূপ শক্তি দ্বারা (অগ্রে) আদিতে ব্রহ্মা- (সম্ অবর্তত) উৎপন্ন হয়েছিল। (ত্বষ্টা) সেই বিধাতাই (তস্য) জগতের (রূপম্) রূপকে (বিদধৎ) বিধান করেছিলেন (অগ্রে) তাঁর কর্তৃক আদি সেই (মর্তস্য) মনুষ্য (আজানাম্) জন্ম হতেই (দেবত্বম্) দেবত্ব (এতি) প্রাপ্ত হয়।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ অত্যন্ত বিজ্ঞানসম্মত এই মন্ত্রে পরমেশ্বর আমাদের জ্ঞান দিচ্ছেন যে, জগতের শুরু হয় তরল অবস্থা হতে, আমাদের শরীরও এই তরল হতেই পুষ্ট হয়। জগতের নির্মাতা পরমেশ্বরই এই জগতের রূপনির্মাতা। তিনিই প্রথম দেবত্ব প্রাপ্ত মানব ঋষিদের সৃজন করেছিলেন। ।৭৮।।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal