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  • यजुर्वेद - अध्याय 38/ मन्त्र 10
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    विश्वा॒ऽआशा॑ दक्षिण॒सद् विश्वा॑न् दे॒वानया॑डि॒ह।स्वाहा॑कृतस्य घ॒र्मस्य॒ मधोः॑ पिबतमश्विना॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वाः॑। आशाः॑। द॒क्षि॒ण॒सदिति दक्षिण॒ऽसत्। विश्वा॑न्। दे॒वान्। अया॑ट्। इ॒ह ॥ स्वाहा॑कृत॒स्येति॒ स्वाहा॑ऽकृतस्य। घ॒र्मस्य॑। मधोः। पि॒ब॒त॒म्। अ॒श्वि॒ना॒ ॥१० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वाऽआशा दक्षिणसद्विश्वान्देवानयाडिह । स्वाहाकृतस्य घर्मस्य मधोः पिबतमश्विना ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वाः। आशाः। दक्षिणसदिति दक्षिणऽसत्। विश्वान्। देवान्। अयाट्। इह॥ स्वाहाकृतस्येति स्वाहाऽकृतस्य। घर्मस्य। मधोः। पिबतम्। अश्विना॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 38; मन्त्र » 10
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    पदार्थ -
    हे (अश्विना) अध्यापक उपदेशक लोगो! तुम (इह) इस जगत् में (स्वाहाकृतस्य) सत्यक्रिया से सिद्ध हुए (घर्मस्य, मधोः) मधुरादि गुणयुक्त यज्ञ के अवशिष्ट भाग को (पिबतम्) पिओ, वैसे यह (दक्षिणसत्) वेदी से दक्षिण दिशा में बैठनेवाला आचार्य्य (विश्वाः) सब (आशाः) दिशाओं तथा (विश्वान्) समस्त (देवान्) उत्तम गुणों वा विद्वानों का (अयाट्) संग वा सेवन पूजन करे॥१०॥

    भावार्थ - जैसे उपदेशक शिक्षा करें और अध्यापक पढ़ावें, वैसे ही सब लोग ग्रहण करें॥१०॥

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