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  • यजुर्वेद - अध्याय 38/ मन्त्र 12
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - आर्ची पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    अश्वि॑ना घ॒र्मं पा॑त॒ꣳ हार्द्वा॑न॒मह॑र्दि॒वाभि॑रू॒तिभिः॑।त॒न्त्रा॒यिणे॒ नमो॒ द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म्॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्वि॑ना। घ॒र्मम्। पा॒त॒म्। हार्द्वा॑नम्। अहः॑। दि॒वाभिः॑। ऊ॒तिभि॒रित्यू॒तिऽभिः॑ ॥ त॒न्त्रा॒यिणे॑। नमः॑। द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म् ॥१२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्विना घर्मम्पातँ हार्द्वानमहर्दिवाभिरूतिभिः । तन्त्रायिणो नमो द्यावापृथिवीभ्याम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अश्विना। घर्मम्। पातम्। हार्द्वानम्। अहः। दिवाभिः। ऊतिभिरित्यूतिऽभिः॥ तन्त्रायिणे। नमः। द्यावापृथिवीभ्याम्॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 38; मन्त्र » 12
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    पदार्थ -
    हे (अश्विना) सुशिक्षित स्त्री-पुरुष! तुम (अहः) प्रतिदिन (दिवाभिः) दिन-रात वर्त्तमान (ऊतिभिः) रक्षादि क्रियाओं से (तन्त्रायिणे) शिल्पविद्या के शास्त्रों को जानने वा प्राप्त होने के लिये (हार्द्वानम्) हृदय को प्राप्त हुए ज्ञानसम्बन्धी (घर्मम्) यज्ञ की (पातम्) रक्षा करो और (द्यावापृथिवीभ्याम्) सूर्य और आकाश के सम्बन्ध से शिल्पशास्त्रज्ञ पुरुष के लिये (नमः) अन्न को देओ॥१२॥

    भावार्थ - जैसे भूमि और सूर्य परस्पर उपकारी हुए साथ वर्त्तमान हैं, वैसे मित्रभाव से युक्त स्त्री-पुरुष निरन्तर वर्त्ता करें॥१२॥

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