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  • यजुर्वेद - अध्याय 38/ मन्त्र 11
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - विराडुष्णिक् स्वरः - ऋषभः
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    दि॒वि धा॑ऽइ॒मं य॒ज्ञमि॒मं य॒ज्ञं दि॒वि धाः॑।स्वाहा॒ऽग्नये॑ य॒ज्ञिया॑य॒ शं यजु॑र्भ्यः॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वि। धाः॒। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। दि॒वि। धाः॒ ॥ स्वाहा॑। अ॒ग्नये॑। य॒ज्ञिया॑य। शम्। यजु॑र्भ्य॒ इति॒ यजुः॑ऽभ्यः ॥११ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवि धाऽइमँयज्ञमिमम्यज्ञन्दिवि धाः । स्वाहाग्नये यज्ञियाय शँयजुर्भ्यः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दिवि। धाः। इमम्। यज्ञम्। इमम्। यज्ञम्। दिवि। धाः॥ स्वाहा। अग्नये। यज्ञियाय। शम्। यजुर्भ्य इति यजुःऽभ्यः॥११॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 38; मन्त्र » 11
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    पदार्थ -
    हे स्त्री वा पुरुष! तू (यजुर्भ्यः) यज्ञ करानेहारे वा यजुर्वेद के विभागों से (स्वाहा) सत्यक्रिया के साथ (अग्नये) (यज्ञियाय) यज्ञकर्म के योग्य अग्नि के लिये (दिवि) सूर्य्यादि के प्रकाश में (इमम्) इस (यज्ञम्) सङ्ग करने योग्य गृहाश्रम व्यवहार के उपयोगी यज्ञ को (शम्) सुखपूर्वक (धाः) धारण कर (दिवि) विज्ञान के प्रकाश में (इमम्) इस परमार्थ के साधक संन्यास आश्रम के उपयोगी (यज्ञम्) विद्वानों के संगरूप यज्ञ को सुखपूर्वक (धाः) धारण कर॥११॥

    भावार्थ - जो स्त्री-पुरुष ब्रह्मचर्य के साथ विद्यायुक्त उत्तम शिक्षा को प्राप्त होकर वेदरीति से कर्मों का अनुष्ठान करें, वे अतुल सुख को प्राप्त होवें॥११॥

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