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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 79
    ऋषिः - अगस्त्य ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अनु॑त्त॒मा ते॑ मघव॒न्नकि॒र्नु न त्वावाँ॑२ऽअस्ति दे॒वता॒ विदा॑नः।न जाय॑मानो॒ नश॑ते॒ न जा॒तो यानि॑ करि॒ष्या कृ॑णु॒हि प्र॑वृद्ध॥७९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑त्त॒म्। आ। ते॒। म॒घ॒व॒न्निति॑ मघऽवन्। नकिः॑। नु। न। त्वावा॒न्निति त्वाऽवा॑न्। अ॒स्ति॒। दे॒वता॑ विदा॑नः ॥ न। जाय॑मानः। नश॑ते। न। जा॒तः। यानि॑। क॒रि॒ष्या। कृ॒णु॒हि। प्र॒वृ॒द्घेति॑ प्रऽवृद्ध ॥७९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनुत्तमा ते मघवन्नकिर्नु न त्वावाँऽअस्ति देवता विदानः । न जायमानो नशते न जातो यानि करिष्या कृणुहि प्रवृद्ध ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अनुत्तम्। आ। ते। मघवन्निति मघऽवन्। नकिः। नु। न। त्वावान्निति त्वाऽवान्। अस्ति। देवता विदानः॥ न। जायमानः। नशते। न। जातः। यानि। करिष्या। कृणुहि। प्रवृद्घेति प्रऽवृद्ध॥७९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 79
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    Meaning -
    O Mighty God, Thy nature is matchless. Among the learned sages not one is found Thy equal. Thou west never born, nor is born. None can comprehend what Thou hast done or shalt do.

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