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अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 31

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  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 31/ मन्त्र 3
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - आशापाला वास्तोष्पतयः छन्दः - विराडनुष्टुप सूक्तम् - पाशविमोचन सूक्त

    अस्रा॑मस्त्वा ह॒विषा॑ यजा॒म्यश्लो॑णस्त्वा घृ॒तेन॑ जुहोमि। य आशा॑नामाशापा॒लस्तु॒रीयो॑ दे॒वः स नः॑ सुभू॒तमे॒ह व॑क्षत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस्रा॑म: । त्वा॒ । ह॒विषा॑ । य॒जा॒मि॒ । अश्रो॑ण: । त्वा॒ । घृ॒तेन॑ । जु॒हो॒मि॒ ।य: । आशा॑नाम् । आ॒शा॒ऽपा॒ल: । तु॒रीय॑: । दे॒व: । स: । न॒: । सु॒ऽभू॒तम् । आ । इ॒ह । व॒क्ष॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्रामस्त्वा हविषा यजाम्यश्लोणस्त्वा घृतेन जुहोमि। य आशानामाशापालस्तुरीयो देवः स नः सुभूतमेह वक्षत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्राम: । त्वा । हविषा । यजामि । अश्रोण: । त्वा । घृतेन । जुहोमि ।य: । आशानाम् । आशाऽपाल: । तुरीय: । देव: । स: । न: । सुऽभूतम् । आ । इह । वक्षत् ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 31; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    [हे परमेश्वर !] (अस्रामः) श्रमरहित मैं (त्वा) तुझको (हविषा) भक्ति से (यजामि) पूजता हूँ, (अश्लोणः) लंगड़ा न होता हुआ मैं (त्वा) तुझको (घृतेन) [ज्ञान के] प्रकाश से [अथवा घृत से] (जुहोमि) स्वीकार करता हूँ। (यः) जो (आशानाम्) सब दिशाओं में (आशापालः) आशाओं को पालन करनेवाला, (तुरीयः) बड़ा वेगवान् परमेश्वर [अथवा, चौथा मोक्ष] (देवः) प्रकाशमय है, (सः) वह (नः) हमारे लिये (इह) यहाँ पर (सुभूतम्) उत्तम ऐश्वर्य (आ+वक्षत्) पहुँचावे ॥३॥

    भावार्थ - जो मनुष्य निरालस्य होकर परमेश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं अथवा जो घृत से अग्नि के समान प्रतापी होते हैं, वे शीघ्र ही जगदीश्वर का दर्शन करके [अथवा धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि से पाये हुए चौथे मोक्ष के लाभ से] महासमर्थ हो जाते हैं ॥३॥ सायणभाष्य में (अस्रामः) के स्थान में [अश्रामः] और (अश्लोणः) के स्थान में [अश्रोणः] हैं, वे अधिक शुद्ध जान पड़ते हैं ॥

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