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अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 31

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  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 31/ मन्त्र 4
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - आशापाला वास्तोष्पतयः छन्दः - परानुष्टुप्त्रिष्टुप् सूक्तम् - पाशविमोचन सूक्त

    स्व॒स्ति मा॒त्र उ॒त पि॒त्रे नो॑ अस्तु स्व॒स्ति गोभ्यो॒ जग॑ते॒ पुरु॑षेभ्यः। विश्व॑म्सुभू॒तम्सु॑वि॒दत्रं॑ नो अस्तु॒ ज्योगे॒व दृ॑शेम॒ सूर्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्व॒स्ति । मा॒त्रे । उ॒त । पि॒त्रे । न॒: । अ॒स्तु॒ । स्व॒स्ति । गोभ्य॑: । जग॑ते । पुरु॑षेभ्य: । विश्व॑म् । सु॒ऽभू॒तम् । सु॒ऽवि॒दत्र॑म् । न॒: । अ॒स्तु॒ । ज्योक् । ए॒व । दृ॒शे॒म॒ । सूर्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वस्ति मात्र उत पित्रे नो अस्तु स्वस्ति गोभ्यो जगते पुरुषेभ्यः। विश्वम्सुभूतम्सुविदत्रं नो अस्तु ज्योगेव दृशेम सूर्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्वस्ति । मात्रे । उत । पित्रे । न: । अस्तु । स्वस्ति । गोभ्य: । जगते । पुरुषेभ्य: । विश्वम् । सुऽभूतम् । सुऽविदत्रम् । न: । अस्तु । ज्योक् । एव । दृशेम । सूर्यम् ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 31; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (नः) हमारी (मात्रे) माता के लिये (उत) और (पित्रे) पिता के लिये (स्वस्ति) आनन्द (अस्तु) होवे और (गोभ्यः) गौओं के लिये (पुरुषेभ्यः) पुरुषों के लिये और (जगते) जगत् के लिये (स्वस्ति) आनन्द होवे। (विश्वम्) संपूर्ण (सुभूतम्) उत्तम ऐश्वर्य और (सुविदत्रम्) उत्तम ज्ञान वा कुल (नः) हमारे लिये (अस्तु) हो, (ज्योक्) बहुत काल तक (सूर्यम्) सूर्य को (एव) ही (दृशेम) हम देखते रहें ॥४॥

    भावार्थ - जो मनुष्य माता-पिता आदि अपने कुटुम्बियों और अन्य माननीय पुरुषों और गौ आदि पशुओं से लेकर सब जीवों और संसार के साथ उपकार करते हैं, वे पुरुषार्थी सब प्रकार का उत्तम धन, उत्तम ज्ञान और उत्तम कुल पाते और वही सूर्य जैसे प्रकाशमान होकर दीर्घ आयु अर्थात् बड़े नाम को भोगते हैं ॥४॥

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