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अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 32

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  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 32/ मन्त्र 2
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - द्यावापृथिवी छन्दः - ककुम्मत्यनुष्टुप् सूक्तम् - महद्ब्रह्मा सूक्त

    अ॒न्तरि॑क्ष आसां॒ स्थाम॑ श्रान्त॒सदा॑मिव। आ॒स्थान॑म॒स्य भू॒तस्य॑ वि॒दुष्टद्वे॒धसो॒ न वा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न्तरि॑क्षे । आ॒सा॒म् । स्याम॑ । श्रा॒न्त॒सदा॑म्ऽइव । आ॒ऽस्थान॑म् । अ॒स्य । भू॒तस्य॑ । वि॒दु: । तत् । वे॒धस॑: । न । वा॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्तरिक्ष आसां स्थाम श्रान्तसदामिव। आस्थानमस्य भूतस्य विदुष्टद्वेधसो न वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अन्तरिक्षे । आसाम् । स्याम । श्रान्तसदाम्ऽइव । आऽस्थानम् । अस्य । भूतस्य । विदु: । तत् । वेधस: । न । वा ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 32; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (अन्तरिक्षे) सबके भीतर दिखाई देनेहारे आकाशरूप परमेश्वर में (आसाम्) इनका [लतारूप सृष्टियों का] (स्थाम) ठहराव है (श्रान्तसदाम् इव) जैसे थक कर बैठे हुए यात्रियों का पड़ाव। (वेधसः) बुद्धिमान् लोग (तत्) उस ब्रह्म को (अस्य भूतस्य) इस संसार का (आस्थानम्) आश्रय (विदुः) जानते हैं, (वा) अथवा (न) नहीं [जानते हैं] ॥२॥

    भावार्थ - सूर्य आदि असंख्य लोक उसी परमब्रह्म में ठहरे हैं, वही समस्त जगत् का केन्द्र है। इस बात को विद्वान् लोग विधि और निषेधरूप विचार से निश्चित करते हैं, जैसे ब्रह्म जड़ नहीं है, किन्तु चैतन्य है, इत्यादि, अथवा जितना अधिक ब्रह्मज्ञान होता जाता है, उतना ही वह अनन्त, ब्रह्म अगम्य और अति अधिक जान पड़ता है, इससे वह ब्रह्मज्ञानी अपने को अज्ञानी समझते हैं ॥२॥

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