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अथर्ववेद > काण्ड 1 > सूक्त 32

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  • अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 32/ मन्त्र 3
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - द्यावापृथिवी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - महद्ब्रह्मा सूक्त

    यद्रोद॑सी॒ रेज॑माने॒ भूमि॑श्च नि॒रत॑क्षतम्। आ॒र्द्रं तद॒द्य स॑र्व॒दा स॑मु॒द्रस्ये॑व स्रो॒त्याः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । रोद॑सी॒ इति॑ । रेज॑माने॒ इति॑ । भूमि॑: । च॒ । नि॒:ऽअत॑क्षतम् । आ॒र्द्रम् । तत् । अ॒द्य । स॒र्व॒दा । स॒मु॒द्रस्य॑ऽइव । स्रो॒त्या: ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्रोदसी रेजमाने भूमिश्च निरतक्षतम्। आर्द्रं तदद्य सर्वदा समुद्रस्येव स्रोत्याः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । रोदसी इति । रेजमाने इति । भूमि: । च । नि:ऽअतक्षतम् । आर्द्रम् । तत् । अद्य । सर्वदा । समुद्रस्यऽइव । स्रोत्या: ॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 32; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (रोदसी=सि) हे सूर्य (च) और (भूमिः) भूमि। (रेजमाने) काँपते हुए तुम दोनों ने (यत्) जिस [रस] को (निरतक्षम्) उत्पन्न किया है, (तत्) वह (आर्द्रम्) रस (अद्य) आज (सर्वदा) सदा से (समुद्रस्य) सींचनेवाले समुद्र के (स्रोत्याः) प्रवाहों के (इव) समान वर्तमान है ॥३॥

    भावार्थ - जिस रस वा उत्पादनशक्ति को, परमेश्वर ने सूर्य और भूमि को (कम्पमान) वश में रख के, सृष्टि के आदि में उत्पन्न किया था वह शक्ति मेघ आदि रस रूप से सदा संसार में सृष्टि की उत्पत्ति और स्थिति का कारण है ॥३॥

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