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अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 32/ मन्त्र 4
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - द्यावापृथिवी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - महद्ब्रह्मा सूक्त
विश्व॑म॒न्याम॑भी॒वार॒ तद॒न्यस्या॒मधि॑ श्रि॒तम्। दि॒वे च॑ वि॒श्ववे॑दसे पृथि॒व्यै चा॑करं॒ नमः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठविश्व॑म । अ॒न्याम् । अ॒भि॒ऽवार॑ । तत् । अ॒न्यस्या॑म् । अधि॑ । श्रि॒तम् । दि॒वे । च॒ । वि॒श्वऽवे॑दसे । पृ॒थि॒व्यै । च॒ । अ॒क॒र॒म् । नम॑: ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वमन्यामभीवार तदन्यस्यामधि श्रितम्। दिवे च विश्ववेदसे पृथिव्यै चाकरं नमः ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वम । अन्याम् । अभिऽवार । तत् । अन्यस्याम् । अधि । श्रितम् । दिवे । च । विश्वऽवेदसे । पृथिव्यै । च । अकरम् । नम: ॥
अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 32; मन्त्र » 4
विषय - ब्रह्मविचार का उपदेश।
पदार्थ -
(विश्वम्) उस सर्वव्यापक [रस] ने (अन्याम्) एक [सूर्य्य वा भूमि] को (अभि) चारों ओर से [वार=ववार] घेर लिया, (तत्) वही [रस] (अन्यस्याम्) दूसरी में (अधिश्रितम्) आश्रित हुआ। (च) और (दिवे) सूर्यरूप वा आकाशरूप (च) और (पृथिव्यै) पृथिवीरूप (विश्ववेदसे) सबके जाननेवाले [वा सब धनों के रखनेवाले, वा सबमें विद्यमान ब्रह्म] को (नमः) नमस्कार (अकरम्) मैंने किया है ॥४॥
भावार्थ - सृष्टि का कारण रस अर्थात् जल, सूर्य की किरणों से आकाश में जाकर फिर पृथिवी में प्रविष्ट होता, वही फिर पृथिवी से आकाश में जाता और पृथिवी पर आता है। इस प्रकार उन दोनों का परस्पर आकर्षण, जगत् को उपकारी होता है। विद्वान् लोग इसी प्रकार जगदीश्वर की अनन्त शक्तियों को विचार कर सत्कारपूर्वक उपकार लेकर आनन्द भोगते हैं ॥४॥ यजुर्वेद म० ३। अ० ५। में इस प्रकार वर्णन है- भूर्भुवः॒ स्वर्द्यौरि॑व भू॒म्ना पृ॑थि॒वीव वरि॒म्णा ॥ सबका आधार, सबमें व्यापक, सुखस्वरूप परमेश्वर बहुत्व के कारण [सब लोकों के धारण करने से] आकाश के समान और अपने फैलाव से पृथिवी के समान है ॥
टिप्पणी -
४−विश्वम्। १।१०।२। सर्वं व्याप्तं आर्द्रम्। म० ३। अन्याम्। एकाम् द्यां भूमिं वा। अभि वार। वृञ् वरणे−लिट्। वकारलोपश्छान्दसः। सर्वतो ववार, आच्छादितं चकार। तत्। आर्द्रम्। अन्यस्याम्। अपरस्याम्। अधि+श्रितम्। आश्रितम्। दिवे। १।३०।३। आकाशाय। तद्रूपाय। विश्व-वेदसे। विद्लृ लाभे, वा विद् ज्ञाने सत्तायां च−असुन्। सर्वधन−युक्तायै, सर्वाधारभूतायै। पृथिव्यै। १।२।१। विस्तीर्णायै भूम्यै, तद्रूपाय परमेश्वराय। अकरम्। डुकृञ् करणे−लुङ्। अहं कृतवानस्मि ॥