अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 10/ मन्त्र 4
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - त्रिपदा वर्धमाना गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
अतो॒ वैबृह॒स्पति॑मे॒व ब्रह्म॒ प्र वि॑श॒त्विन्द्रं॑ क्ष॒त्रं तथा॒ वा इति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअत॑: । वै । बृह॒स्पति॑म् । ए॒व । ब्रह्म॑ । प्र । वि॒श॒तु । इन्द्र॑म् । क्ष॒त्रम् । तथा॑ । वै । इति॑ ॥१०.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अतो वैबृहस्पतिमेव ब्रह्म प्र विशत्विन्द्रं क्षत्रं तथा वा इति ॥
स्वर रहित पद पाठअत: । वै । बृहस्पतिम् । एव । ब्रह्म । प्र । विशतु । इन्द्रम् । क्षत्रम् । तथा । वै । इति ॥१०.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 10; मन्त्र » 4
विषय - अतिथिसत्कार की महिमा का उपदेश।
पदार्थ -
(अतः) इस [अतिथिसत्कार] से (वै) निश्चय करके (ब्रह्म) ब्रह्मज्ञानी कुल (बृहस्पतिम्) बड़े-बड़े प्राणियों के रक्षक गुण में (एव) ही (प्र विशतु) प्रवेश करे, (तथा) उसी प्रकार [अतिथिसत्कार] से (वै) निश्चय करके (क्षत्रम्) क्षत्रियकुल (इन्द्रम्) परमऐश्वर्य में [प्रवेश करे], (इति) ऐसा [अतिथि कहे] ॥४॥
भावार्थ - आप्त अतिथि मन्त्र ३का उत्तर देवे कि ब्रह्मज्ञानी पुरुष प्राणियों की रक्षा का और राजा लोग ऐश्वर्यप्राप्ति का प्रयत्न करते रहें ॥४॥
टिप्पणी -
४−(बृहस्पतिम्) बृहतां प्राणिनां पालकं गुणम् (एव) निश्चयेन (प्र विशतु) प्रविष्टं भवतु (इन्द्रम्) परमैश्वर्यम् (तथा)तद्विधानेन सत्कारेण (इति) पादपूर्तौ। अन्यत् पूर्ववत्-म० ३ ॥