अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 10/ मन्त्र 5
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - त्रिपदा साम्नी बृहती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
अतो॒ वैबृह॒स्पति॑मे॒व ब्र॑ह्म॒ प्रावि॑श॒दिन्द्रं॑ क्ष॒त्रं ॥
स्वर सहित पद पाठअत॑: । वै । बृह॒स्पति॑म् । ए॒व । ब्रह्म॑ । प्र । अ॒वि॒श॒त् । इन्द्र॑म् । क्ष॒त्रम् ॥१०.५॥
स्वर रहित मन्त्र
अतो वैबृहस्पतिमेव ब्रह्म प्राविशदिन्द्रं क्षत्रं ॥
स्वर रहित पद पाठअत: । वै । बृहस्पतिम् । एव । ब्रह्म । प्र । अविशत् । इन्द्रम् । क्षत्रम् ॥१०.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 10; मन्त्र » 5
विषय - अतिथिसत्कार की महिमा का उपदेश।
पदार्थ -
[हे मनुष्यो !] (अतः)इस [अतिथिसत्कार] से (वै) निश्चय करके (ब्रह्म) ब्रह्मज्ञानी समूह ने (बृहस्पतिम्) बड़े-बड़े प्राणियों के रक्षक गुण [वेदज्ञान आदि] में (एव) ही (प्र अविशत्) प्रवेश किया है, और (क्षत्रम्) क्षत्रियकुल ने (इन्द्रम्) परमऐश्वर्य में [प्रवेश किया है] ॥५॥
भावार्थ - इस चक्ररूप संसार मेंयही नियम सदा से है कि ब्रह्मज्ञानियों ने वेदज्ञान आदि से और क्षत्रियों ने परमऐश्वर्य बढ़ाने से प्रतिष्ठा पायी है ॥५॥
टिप्पणी -
५−(प्र अविशत्) प्रविष्टमभवत्। अन्यत्पूर्ववत्-म० ४ ॥