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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 11

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 11/ मन्त्र 8
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - निचृत् आर्ची बृहती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    यदे॑न॒माह॒व्रात्य॒ यथा॑ ते॒ वश॒स्तथा॒स्त्विति॒ वश॑मे॒व तेनाव॑ रुन्द्धे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ए॒न॒म् । आह॑ । ते॒ । वश॑: । तथा॑ । अ॒स्तु॒ । इति॑ । वश॑म् । एव । तेन॑ । अव॑ । रु॒न्ध्दे॒ ॥११.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदेनमाहव्रात्य यथा ते वशस्तथास्त्विति वशमेव तेनाव रुन्द्धे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । एनम् । आह । ते । वश: । तथा । अस्तु । इति । वशम् । एव । तेन । अव । रुन्ध्दे ॥११.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 11; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    (यत्) जब (एनम्) इस [अतिथि] से (आह) वह [गृहस्थ] कहता है−(व्रात्य) हे व्रात्य ! [उत्तम व्रतधारी] (यथा) जैसे (ते) तेरा (वशः) प्रधानत्व हो, (तथा अस्तु इति) वैसा होवे−(तेन) उस [सत्कार] से (एव) निश्चय करके (वशम्) प्रधानत्व को (अव रुन्द्धे) वह [गृहस्थ] सुरक्षित करता है ॥८॥

    भावार्थ - गृहस्थ अतिथि की प्रधानता मानने से अपनी प्रधानता को दृढ़ करे ॥८॥

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