अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 8
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - निचृत् आर्ची बृहती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
39
यदे॑न॒माह॒व्रात्य॒ यथा॑ ते॒ वश॒स्तथा॒स्त्विति॒ वश॑मे॒व तेनाव॑ रुन्द्धे ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ए॒न॒म् । आह॑ । ते॒ । वश॑: । तथा॑ । अ॒स्तु॒ । इति॑ । वश॑म् । एव । तेन॑ । अव॑ । रु॒न्ध्दे॒ ॥११.८॥
स्वर रहित मन्त्र
यदेनमाहव्रात्य यथा ते वशस्तथास्त्विति वशमेव तेनाव रुन्द्धे ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । एनम् । आह । ते । वश: । तथा । अस्तु । इति । वशम् । एव । तेन । अव । रुन्ध्दे ॥११.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अतिथिसत्कार के विधान का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) जब (एनम्) इस [अतिथि] से (आह) वह [गृहस्थ] कहता है−(व्रात्य) हे व्रात्य ! [उत्तम व्रतधारी] (यथा) जैसे (ते) तेरा (वशः) प्रधानत्व हो, (तथा अस्तु इति) वैसा होवे−(तेन) उस [सत्कार] से (एव) निश्चय करके (वशम्) प्रधानत्व को (अव रुन्द्धे) वह [गृहस्थ] सुरक्षित करता है ॥८॥
भावार्थ
गृहस्थ अतिथि की प्रधानता मानने से अपनी प्रधानता को दृढ़ करे ॥८॥
विषय
वश:-निकामः
पदार्थ
१. (यत्) = जो (एनम्) = इसको (आह) = कहता है कि हे (व्रात्य) = वतिन्। (यथा ते वश:) = जैसी आपकी इच्छा हो, तथा (अस्तु इति) = वैसा ही हो। (तेन) = उस कथन से वह (वशमेव अवरुन्द्धे) = चाहने योग्य पदार्थों को अपने लिए सुरक्षित करता है। (यः एवं वेद) = जिस प्रकार व्रात्य का आतिथ्य करता हुआ (यथा ते वशः) = तथा अस्तु' यह कहना जानता है, (एवम्) = इस आतिथ्यकर्ता को (वशः आगच्छति) = सब इष्ट-पदार्थ प्राप्त होते हैं और यह (वशिनां वशी भवति) = सर्वश्रेष्ठ वशी बनता है। २. (यत्) = जो (एनम् आह) = इसको कहता है कि हे (व्रात्य) = वतिन्! (यथा ते निकाम:) = जैसी आपकी अभिलाषा हो तथा (अस्तु इति) = वैसा ही हो (तेन) = उस कथन से (निकामं एव अवरुन्द्धे) = सब अभिलषित पदार्थों को अपने लिए सुरक्षित करता है। (यः एवं वेद) = जो अतिथि के लिए ऐसा करना जानता है (एनं निकामः आगच्छति) = इसे अभिलषित पदार्थ (सर्वतः) = प्राप्त होते हैं। (निकामस्य निकामे भवति) = अभिलषित पदार्थों की प्राप्ति [पूर्ति] में यह स्थित होता है, अभिलषित पदार्थों को प्राप्त करता है।
भावार्थ
आतिथ्य हमारे सब मनोरथों को पूर्ण करता है और हमें सब अभिलषित पदार्थ प्राप्त होते हैं।
भाषार्थ
(यद्) जो (एनम्) इस अतिथि को (आह) गृहस्थी कहता है कि (व्रात्य) हे व्रात्य ! (यथा) जैसी (ते) आप की (वशः) इच्छा हो (तथा) वैसा (अस्तु इति) किया जाय, (तेन) उस द्वारा (वशम्, एव) अतिथि की इच्छा को ही गृहस्थी (अवरुन्द्धे) पूर्ति करता है। (वशः= कान्तौ, कान्तिः इच्छा)
विषय
व्रातपति आचार्य का अतिथ्य और अतिथियज्ञ।
भावार्थ
(यद् एनम् आह) जो अतिथि को कहता है कि (व्रात्य यथा ते वशः) हे व्रात्य जैसी आपकी कामना है (तथा अस्तु इति) वैसा ही हो (तेन वशम् एव अवरुन्धे) इससे कामनायोग्य सब पदार्थों को वह अपने वश करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ देवी पंक्तिः, २ द्विपदा पूर्वा त्रिष्टुप् अतिशक्करी, ३-६, ८, १०, त्रिपदा आर्ची बृहती (१० भुरिक्) ७, ९, द्विपदा प्राजापत्या बृहती, ११ द्विपदा आर्ची, अनुष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
When he says: ‘Vratya, whatever your desire, that will be provided’, he only secures the fulfilment of his own desires in life.
Translation
When he says to him :"Vrátya, let it be as you command", thereby he, verily, secures the command itself.
Translation
When he asks his guest as to let it be so as he wishes he thereby secures for himself the fulfillment of his will.
Translation
When he says to him, Acharya, as thy will is so let it be, he secures to himself thereby the fulfillment of his will.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
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