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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - निचृत् आर्ची बृहती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    50

    यदे॑न॒माह॒व्रात्य॒ क्वावात्सी॒रिति॑ प॒थ ए॒व तेन॑ देव॒याना॒नव॑ रुन्द्धे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ए॒न॒म् । आह॑ । व्रात्य॑ । क्व᳡ । अ॒वा॒त्सी॒: । इति॑ । प॒थ: । ए॒व । तेन॑ । दे॒व॒ऽयाना॑न् । अव॑ । रु॒न्ध्दे॒ ॥११.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदेनमाहव्रात्य क्वावात्सीरिति पथ एव तेन देवयानानव रुन्द्धे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । एनम् । आह । व्रात्य । क्व । अवात्सी: । इति । पथ: । एव । तेन । देवऽयानान् । अव । रुन्ध्दे ॥११.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अतिथिसत्कार के विधान का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जब (एनम्) इस [अतिथि] से (आह) वह [गृहस्थ] कहता है−(व्रात्य) हे व्रात्य ! [सद्व्रतधारी] (क्व) कहाँ (अवात्सीः इति) [रात्रि में] तू रहा था ? (तेन) उस [सत्कार] से (एव)निश्चय करके (देवयानान्) विद्वानों के चलने योग्य (पथः) मार्गों को (अवरुन्द्धे) वह [अपने लिये] सुरक्षित करता है ॥३॥

    भावार्थ

    अतिथि के साथप्रीतिपूर्वक वार्तालाप करने से गृहस्थ उसके उपदेश द्वारा सन्मार्ग पर चल करआनन्द भोगे ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(यत्) यदा (एनम्) अतिथिम् (आह) ब्रूते (पथः) मार्गान् (एव)निश्चयेन (तेन) सत्कारेण (देवयानान्) विद्वद्भिर्गन्तव्यान् (अव रुन्द्धे)आत्मने सुरक्षति। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    आतिथ्य से दीर्घजीवन

    पदार्थ

    १. (यत्) = जो (एनम्) = इस विद्वान् व्रात्य को (आह) = यह कहता है कि (व्रात्य) = हे जतिन् ! (क्व अवात्सी: इति) = आप कहाँ रहे? (तेन एव) = उस निवास के विषय में सत्कारपूर्वक किये गये प्रश्न के द्वारा ही (देवयानान् पश्चः अवरुद्धे) = देवयानमार्गों को अपने लिए सुरक्षित करता है, अर्थात् इस प्रकार आतिथ्य से उसकी प्रवृत्ति उत्तम होती है और वह देवयानमार्गों से चलनेवाला बनता है। २. (यत् एनम् आहः) = जो इसको कहता है कि (व्रात्य उदकम् इति) = हे वतिन् ! आपके लिए यह जल है। (तेन एव) = इस जल के अर्पण से ही यह (आप: अवरुद्धे) = उत्तम कर्मों को अपने लिए सुरक्षित करता है, अर्थात् उस अतिथि की प्रेरणाओं से प्रेरित होकर उत्तम कर्मों में प्रवृत्त होनेवाला होता है। (यत् एनम् आह) = जो इस विद्वान् व्रात्य से कहता है कि (व्रात्य तर्पयन्तु इति) = हे वतिन्! ये भोजन आपको तृप्त करनेवाले हों। (तेन एव) = इस सत्करण से ही (प्राणं वर्षीयांसं कुरुते) = जीवन को दीर्घ करता है। स्वयं आतिथ्यावशिष्ट भोजन करता हुआ दीर्घजीवनवाला बनता है। ३. (यत् एनम् आह) = जो इस व्रात्य से कहता है कि व्रात्य-हे वतिन्! (यथा ते प्रियम्) = जैसा आपको प्रिय लगे (तथा अस्तु इति) = वैसा ही हो। (तेन एव) = उस प्रिय प्रश्न से ही (प्रियं अवरुद्धे) = अपने लिए प्रिय को सुरक्षित करता है। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार व्रात्य से प्रिय विषयक प्रश्न करना जानता है, (एनम्) = इस प्रश्नकर्ता को (प्रियं आगच्छति) = प्रिय प्राप्त होता है और वह (प्रियः प्रियस्य भवति) = प्रियों का प्रिय बनता है।

    भावार्थ

    विद्वान व्रात्यों के आतिथ्य से हम देवयानमार्ग पर चलनेवाले, उत्तम कर्मों में प्रवृत्त, दीर्घजीवनवाले व सर्वप्रिय बनते हैं।

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    भाषार्थ

    (यद्) जो (एनम्) इस अतिथि को (आह) गृहस्थी कहता है कि (व्रात्य) हे व्रात्य ! (क्व) कहां (अवात्सीः, इति) आप का निवास था, अर्थात् आप कहां से पधारे हैं, (तेन) उस द्वारा गृहस्थी (देवयानाम् पथः, एव) विद्वान् तथा दिव्यगुणी लोगों के शिष्टाचारमार्गों को ही (अवरुन्द्धे) स्वीकार करता है।

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    विषय

    व्रातपति आचार्य का अतिथ्य और अतिथियज्ञ।

    भावार्थ

    (यद्) जो (एनम्) अतिथि के प्रति (आह) गृहपति कहता है कि (व्रात्य व अवात्सीः इति) हे प्रजापते व्रात्य ! व्रातपते ! आप कहां रहते हैं (तेन) इस प्रकार के प्रश्न से (देवयानान् पथः एव अवरुन्धे) देवयान मार्गों को अपने वश करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ देवी पंक्तिः, २ द्विपदा पूर्वा त्रिष्टुप् अतिशक्करी, ३-६, ८, १०, त्रिपदा आर्ची बृहती (१० भुरिक्) ७, ९, द्विपदा प्राजापत्या बृहती, ११ द्विपदा आर्ची, अनुष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    When the host asks the Vratya guest: ‘Where have you been and from where are you coming’? he is only treasuring for himself the knowledge of the ways of the noble and learned men of divinity.

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    Translation

    When he says ; "Vratya, where did you stay for the night", thereby in fact, he secures the paths traversed by the enlightened ones.

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    Translation

    When addresses to his guest (Vratya) as where do you pass your night, he thereby preserves for himself the path by which go the learned men.

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    Translation

    When he says to his guest, where dost thou live? he reserves for himself the paths on which the sages tread.

    Footnote

    He: The householder. A householder through conversation with a learned guest, derives spiritual knowledge, which adds to his mental peace.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यत्) यदा (एनम्) अतिथिम् (आह) ब्रूते (पथः) मार्गान् (एव)निश्चयेन (तेन) सत्कारेण (देवयानान्) विद्वद्भिर्गन्तव्यान् (अव रुन्द्धे)आत्मने सुरक्षति। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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