अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 10
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - भुरिक् आर्ची बृहती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
47
यदे॑न॒माह॒व्रात्य॒ यथा॑ ते निका॒मस्तथा॒स्त्विति॑ निका॒ममे॒व तेनाव॑ रुन्द्धे ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ए॒न॒म् । आह॑ । व्रात्य॑ । यथा॑ । ते॒ । नि॒ऽका॒म: । तथा॑ । अ॒स्तु॒ । इति॑ । नि॒ऽका॒मम् । ए॒व । तेन॑ । अव॑ । रु॒न्ध्दे॒ ॥११.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
यदेनमाहव्रात्य यथा ते निकामस्तथास्त्विति निकाममेव तेनाव रुन्द्धे ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । एनम् । आह । व्रात्य । यथा । ते । निऽकाम: । तथा । अस्तु । इति । निऽकामम् । एव । तेन । अव । रुन्ध्दे ॥११.१०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अतिथिसत्कार के विधान का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) जब (एनम्) इस [अतिथि] से (आह) वह [गृहस्थ] कहता है−(व्रात्य) हे व्रात्य ! [सत्यव्रतधारी] (यथा) जैसी (ते) तेरी (निकामः) लालसा [निश्चितकामना] हो, (तथा अस्तु इति) वैसाहोवे−(तेन) उस [सत्कार] से (एव) निश्चय करके (निकामम्) अपनी लालसा को (अवरुन्द्धे) वह [गृहस्थ] सुरक्षित करता है ॥१०॥
भावार्थ
गृहस्थ अतिथि कीविद्यावृद्धि आदि लालसा पूरी करने से अपनी लालसाओं की पूर्ति का उपाय जाने॥१०॥
टिप्पणी
१०−(निकामः) निश्चितकामः। लालसा (निकामम्) लालसाम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
वश:-निकामः
पदार्थ
१. (यत्) = जो (एनम्) = इसको (आह) = कहता है कि हे (व्रात्य) = वतिन्। (यथा ते वश:) = जैसी आपकी इच्छा हो, तथा (अस्तु इति) = वैसा ही हो। (तेन) = उस कथन से वह (वशमेव अवरुन्द्धे) = चाहने योग्य पदार्थों को अपने लिए सुरक्षित करता है। (यः एवं वेद) = जिस प्रकार व्रात्य का आतिथ्य करता हुआ (यथा ते वशः) = तथा अस्तु' यह कहना जानता है, (एवम्) = इस आतिथ्यकर्ता को (वशः आगच्छति) = सब इष्ट-पदार्थ प्राप्त होते हैं और यह (वशिनां वशी भवति) = सर्वश्रेष्ठ वशी बनता है। २. (यत्) = जो (एनम् आह) = इसको कहता है कि हे (व्रात्य) = वतिन्! (यथा ते निकाम:) = जैसी आपकी अभिलाषा हो तथा (अस्तु इति) = वैसा ही हो (तेन) = उस कथन से (निकामं एव अवरुन्द्धे) = सब अभिलषित पदार्थों को अपने लिए सुरक्षित करता है। (यः एवं वेद) = जो अतिथि के लिए ऐसा करना जानता है (एनं निकामः आगच्छति) = इसे अभिलषित पदार्थ (सर्वतः) = प्राप्त होते हैं। (निकामस्य निकामे भवति) = अभिलषित पदार्थों की प्राप्ति [पूर्ति] में यह स्थित होता है, अभिलषित पदार्थों को प्राप्त करता है।
भावार्थ
आतिथ्य हमारे सब मनोरथों को पूर्ण करता है और हमें सब अभिलषित पदार्थ प्राप्त होते हैं।
भाषार्थ
(यद्) जो (एनम्) इस अतिथि को (आह) गृहस्थी कहता है कि (व्रात्य) हे व्रात्य ! (यथा) जैसी (ते) आप की (निकामः) विशेष कामना है, (तथा) उसी तरह (अस्तु, इति) किया जाय, (तेन) उस द्वारा गृहस्थी (निकामम्, एव) अतिथि की विशिष्ट काम्य वस्तु को ही (अवरुन्द्धे) एकत्रित करता है।
विषय
व्रातपति आचार्य का अतिथ्य और अतिथियज्ञ।
भावार्थ
(यद् एनम् आह) जो अतिथि को कहा जाता है कि हे (व्रात्य यथा ते निकामः) व्रात्य ! जो आपकी कामना है (तथा अस्तु) वैसा ही हो, वैसी आज्ञा कीजिये (इति तेन निकामम् एव अवरुन्धे) उससे वह अपने ही कामना योग्य सब पदार्थों को प्राप्त करता है। (यः एवं वेद) जो इस तत्व को जानता है (एनं निकामः आ गच्छति) उसको उसका कामनायोग्य पदार्थ प्राप्त होता है और (निकामस्य निकामे भवति) जिसको वह चाहता है वह भी उसके इच्छा के अधीन हो जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ देवी पंक्तिः, २ द्विपदा पूर्वा त्रिष्टुप् अतिशक्करी, ३-६, ८, १०, त्रिपदा आर्ची बृहती (१० भुरिक्) ७, ९, द्विपदा प्राजापत्या बृहती, ११ द्विपदा आर्ची, अनुष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
When he says: ‘Vratya, whatever your choice, the same would be provided’, thereby he only secures the fulfilment of his own choices in life.
Translation
When he says to him : "Vratya, let it be as you desire," thereby he, verily secures the desire itself.
Translation
When he says his guest as to let it be so as is his desire, he thereby makes secure for himself the attainment of desire.
Translation
When he says to him, Acharya, as thy desire is so let it be. he secures to himself thereby the attainment of his desire.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१०−(निकामः) निश्चितकामः। लालसा (निकामम्) लालसाम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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