अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 7
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - द्विपदा प्राजापत्या बृहती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
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ऐनं॑ प्रि॒यंग॑च्छति प्रि॒यः प्रि॒यस्य॑ भवति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ए॒न॒म् । प्रि॒यम् । ग॒च्छ॒ति॒ । प्रि॒य: । प्रि॒यस्य॑ । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥११.७॥
स्वर रहित मन्त्र
ऐनं प्रियंगच्छति प्रियः प्रियस्य भवति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठआ । एनम् । प्रियम् । गच्छति । प्रिय: । प्रियस्य । भवति । य: । एवम् । वेद ॥११.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अतिथिसत्कार के विधान का उपदेश।
पदार्थ
(एनम्) उस [गृहस्थ] को (प्रियम्) प्रिय पदार्थ (आ) आकर (गच्छति) मिलता है, वह (प्रियस्य) अपने इष्ट मित्र का (प्रियः) प्रिय (भवति) होता है, (यः) जो (एवम्) ऐसे [विद्वान्] को (वेद) जानता है ॥७॥
भावार्थ
आदरपूर्वक अतिथि को उसका प्रिय पदार्थ अर्पण करने से गृहस्थ अपना इष्ट पदार्थ उत्तम ज्ञानादि प्राप्त करके अपने मित्रों का प्रिय होवे ॥६, ७॥
विषय
आतिथ्य से दीर्घजीवन
पदार्थ
१. (यत्) = जो (एनम्) = इस विद्वान् व्रात्य को (आह) = यह कहता है कि (व्रात्य) = हे जतिन् ! (क्व अवात्सी: इति) = आप कहाँ रहे? (तेन एव) = उस निवास के विषय में सत्कारपूर्वक किये गये प्रश्न के द्वारा ही (देवयानान् पश्चः अवरुद्धे) = देवयानमार्गों को अपने लिए सुरक्षित करता है, अर्थात् इस प्रकार आतिथ्य से उसकी प्रवृत्ति उत्तम होती है और वह देवयानमार्गों से चलनेवाला बनता है। २. (यत् एनम् आहः) = जो इसको कहता है कि (व्रात्य उदकम् इति) = हे वतिन् ! आपके लिए यह जल है। (तेन एव) = इस जल के अर्पण से ही यह (आप: अवरुद्धे) = उत्तम कर्मों को अपने लिए सुरक्षित करता है, अर्थात् उस अतिथि की प्रेरणाओं से प्रेरित होकर उत्तम कर्मों में प्रवृत्त होनेवाला होता है। (यत् एनम् आह) = जो इस विद्वान् व्रात्य से कहता है कि (व्रात्य तर्पयन्तु इति) = हे वतिन्! ये भोजन आपको तृप्त करनेवाले हों। (तेन एव) = इस सत्करण से ही (प्राणं वर्षीयांसं कुरुते) = जीवन को दीर्घ करता है। स्वयं आतिथ्यावशिष्ट भोजन करता हुआ दीर्घजीवनवाला बनता है। ३. (यत् एनम् आह) = जो इस व्रात्य से कहता है कि व्रात्य-हे वतिन्! (यथा ते प्रियम्) = जैसा आपको प्रिय लगे (तथा अस्तु इति) = वैसा ही हो। (तेन एव) = उस प्रिय प्रश्न से ही (प्रियं अवरुद्धे) = अपने लिए प्रिय को सुरक्षित करता है। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार व्रात्य से प्रिय विषयक प्रश्न करना जानता है, (एनम्) = इस प्रश्नकर्ता को (प्रियं आगच्छति) = प्रिय प्राप्त होता है और वह (प्रियः प्रियस्य भवति) = प्रियों का प्रिय बनता है।
भावार्थ
विद्वान व्रात्यों के आतिथ्य से हम देवयानमार्ग पर चलनेवाले, उत्तम कर्मों में प्रवृत्त, दीर्घजीवनवाले व सर्वप्रिय बनते हैं।
भाषार्थ
(एनम्) इस गृहस्थी को (प्रियम्) अतिथि की प्रिय वस्तु (आ गच्छति) प्राप्त हो जाती है, और गृहस्थी (प्रियम्) अतिथि की प्रिय वस्तु का (प्रियः) प्यारा१ (भवति) हो जाता है, (यः) जो गृहस्थी कि (एवम्) इस प्रकार (वेद) जानता तथा तदनुकूल व्यवहार करता है।
टिप्पणी
[१. अर्थात् अतिथियों की जो वस्तु प्रिय होती है, गृहस्थी घर में सदा उस वस्तु का संग्रह करता है।]
विषय
व्रातपति आचार्य का अतिथ्य और अतिथियज्ञ।
भावार्थ
(यः एवं वेद) जो इस प्रकार के तत्व को जानता है (एनं प्रिय आ गच्छति) उसको समस्त प्रिय पदार्थ प्राप्त होजाते हैं। (प्रियः प्रियस्य भवति) अपने प्रिय लगने वाले जन को स्वयं भी वह प्रिय हो जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ देवी पंक्तिः, २ द्विपदा पूर्वा त्रिष्टुप् अतिशक्करी, ३-६, ८, १०, त्रिपदा आर्ची बृहती (१० भुरिक्) ७, ९, द्विपदा प्राजापत्या बृहती, ११ द्विपदा आर्ची, अनुष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
Whatever the host loves comes to him, he becomes the beloved centre of whatever he loves, if he knows this and acts thus.
Translation
To him comes the pleasing one; he, who knows thus becomes dear to his dear one.
Translation
That which is pleasant comes to him and he becomes beloved of the beloved, who possesses this knowledge.
Translation
He acquires what is pleasant, and he is the beloved of the beloved, who possesses this knowledge.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
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