अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 18/ मन्त्र 4
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - आर्ची अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
अ॑होरा॒त्रेनासि॑के॒ दिति॒श्चादि॑तिश्च शीर्षकपा॒ले सं॑वत्स॒रः शिरः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हो॒रा॒त्रे इति॑ । नासि॑के॒ इति॑ । दिति॑: । च॒ । अदि॑ति: । च॒ । शी॒र्ष॒क॒पा॒ले इति॑ शी॒र्ष॒ऽक॒पा॒ले । स॒म्ऽव॒त्स॒र: । शिर॑: ॥१८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अहोरात्रेनासिके दितिश्चादितिश्च शीर्षकपाले संवत्सरः शिरः ॥
स्वर रहित पद पाठअहोरात्रे इति । नासिके इति । दिति: । च । अदिति: । च । शीर्षकपाले इति शीर्षऽकपाले । सम्ऽवत्सर: । शिर: ॥१८.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 18; मन्त्र » 4
विषय - व्रात्य के सामर्थ्य का उपदेश।
पदार्थ -
[इस व्रात्य के] (नासिके) दो नथने (अहोरात्रे) दिन रात्रि, (च) और (शीर्षकपाले) मस्तक के दोनोंखोपड़े (दितिः) दिति [खण्डित विकृति अर्थात् विनश्वर सृष्टि] (च) और (अदितिः)अदिति [अखण्डित प्रकृति अर्थात् नाशरहित जगत् सामग्री] हैं और [उसका] (शिरः) शिर (संवत्सरः) संवत्सर [कालज्ञान] है ॥४॥
भावार्थ - संन्यासी अपने नथनेश्वास-प्रश्वास के मार्गों को दिन-रात्रि के समान बहुत बड़ा मान कर मस्तक केखोपड़ों में सृष्टि और प्रकृति के नियमों को और मस्तक के भीतर कालज्ञान प्राप्तकरता है अर्थात् वह अपनी स्वस्थ सचेत इन्द्रियों द्वारा समस्त संसार के ज्ञान कोग्रहण करता है ॥४॥
टिप्पणी -
४−(अहोरात्रे) रात्रिदिने (नासिके) नासाच्छिद्रे (दितिः)खण्डिता विकृतिः। विनश्वरा सृष्टिः (च) (अदितिः) अखण्डिता विनाशरहिता प्रकृतिः।जगत्सामग्री (शीर्षकपाले) शिरोऽस्थिनी (संवत्सरः) सवत्सरज्ञानमित्यर्थः ॥