अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - दैवी पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
तस्य॒व्रात्य॑स्य ॥
स्वर सहित पद पाठतस्य॑ । व्रात्य॑स्य ॥१८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्यव्रात्यस्य ॥
स्वर रहित पद पाठतस्य । व्रात्यस्य ॥१८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
विषय - व्रात्य के सामर्थ्य का उपदेश।
पदार्थ -
(तस्य) उस (व्रात्यस्य) व्रात्य [सत्यव्रतधारी अतिथि] की ॥१॥
भावार्थ - आप्त संन्यासी पूर्णदृष्टि से सब मर्यादाओं को जाँचकर अपनी विद्या से सूर्य चन्द्रमा के समान उपकारकरता है ॥१, २॥
टिप्पणी -
१, २−(यत्) (अस्य) (दक्षिणम्) अवामम् (अक्षि) नेत्रम् (असौ) (सः) प्रसिद्धः (आदित्यः) आदीप्यमानःसूर्यः (सव्यम्) वामम् (चन्द्रमाः) आह्लादकश्चन्द्रलोकः। अन्यत् पूर्ववत् सुगमंच ॥