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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 18/ मन्त्र 2
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आर्ची बृहती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    यद॑स्य॒दक्षि॑ण॒मक्ष्य॒सौ स आ॑दि॒त्यो यद॑स्य स॒व्यमक्ष्य॒सौ स च॒न्द्रमाः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒स्य॒ । दक्षि॑णम् । अक्षि॑ । अ॒सौ । स: । आ॒दि॒त्य: । यत् । अ॒स्य॒ । स॒व्यम् । अक्षि॑ । अ॒सौ । स: । च॒न्द्रमा॑: ॥१८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदस्यदक्षिणमक्ष्यसौ स आदित्यो यदस्य सव्यमक्ष्यसौ स चन्द्रमाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अस्य । दक्षिणम् । अक्षि । असौ । स: । आदित्य: । यत् । अस्य । सव्यम् । अक्षि । असौ । स: । चन्द्रमा: ॥१८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 18; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (यत्) जो (अस्य) इस [व्रात्य] की (दक्षिणम्) दाहिनी (अक्षि) आँख है, (सः) सो (असौ) वह (आदित्यः)चमकता हुआ सूर्य है, और (यत्) जो (अस्य) इस की (सव्यम्) बायीं (अक्षि) आँख है, (सः) सो (असौ) वह (चन्द्रमाः) आनन्दप्रद चन्द्रमा है ॥२॥

    भावार्थ - आप्त संन्यासी पूर्णदृष्टि से सब मर्यादाओं को जाँचकर अपनी विद्या से सूर्य चन्द्रमा के समान उपकारकरता है ॥१, २॥

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