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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 6/ मन्त्र 19
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आर्ची उष्णिक् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    सोऽना॑वृत्तां॒दिश॒मनु॒ व्यचल॒त्ततो॒ नाव॒र्त्स्यन्न॑मन्यत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । अना॑वृत्ताम् । दिश॑म् । अनु॑ । वि । अ॒च॒ल॒त् । तत॑: । न । आ॒ऽव॒र्त्स्यन् । अ॒म॒न्य॒त॒ ॥६.१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोऽनावृत्तांदिशमनु व्यचलत्ततो नावर्त्स्यन्नमन्यत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । अनावृत्ताम् । दिशम् । अनु । वि । अचलत् । तत: । न । आऽवर्त्स्यन् । अमन्यत ॥६.१९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 6; मन्त्र » 19

    पदार्थ -
    (सः) वह [व्रात्यपरमात्मा] (अनावृत्ताम्) अनावृत [बिना अभ्यास की हुई, मनुष्य की बिना जानी] (दिशम् अनु) दिशा की ओर (वि अचलत्) विचरा, (ततः) उस [दिशा] से वह (न) नहीं (आवर्त्स्यन्) लौटेगा−(अमन्यत) उस [विद्वान्] ने माना ॥१९॥

    भावार्थ - परमात्मा की अपार, अनादि और अनन्त शक्ति है, मनुष्य जितना-जितना खोजता है, उतना-उतना ही जगदीश्वरकी सृष्टि और परमाणुरूप सामग्री को अनादि अनन्त ही पाता जाता है और वेद द्वाराअपनी शक्ति बढ़ाता हुआ आनन्द मनाता चला चलता है ॥१९, २०, २१॥

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