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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 6/ मन्त्र 24
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - आसुरी बृहती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    ससर्वा॑नन्तर्दे॒शाननु॒ व्यचलत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । सर्वा॑न् । अ॒न्त॒:ऽदे॒शान् । अनु॑ । वि । अ॒च॒ल॒त् ॥६.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ससर्वानन्तर्देशाननु व्यचलत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । सर्वान् । अन्त:ऽदेशान् । अनु । वि । अचलत् ॥६.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 6; मन्त्र » 24

    पदार्थ -
    (सः) वह [व्रात्यपरमात्मा] (सर्वान्) सब (अन्तर्देशान् अनु) भीतरी देशों की ओर (वि अचलत्) विचरा॥२४॥

    भावार्थ - जो विद्वान् पुरुषगहरे विचार से यह देखते हैं कि संसार में सब लोग परब्रह्म परमात्मा की आज्ञामानने से बड़े हुए हैं, वे ही ईश्वर की आज्ञा में रहकर उन्नति करते और आनन्दभोगते हैं ॥२४-२६॥

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