अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 6/ मन्त्र 4
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - आसुरी पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
स ऊ॒र्ध्वांदिश॒मनु॒ व्यचलत् ॥
स्वर सहित पद पाठस: । ऊ॒र्ध्वाम् । दिश॑म् । अनु॑ । वि । अ॒च॒ल॒त् ॥६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
स ऊर्ध्वांदिशमनु व्यचलत् ॥
स्वर रहित पद पाठस: । ऊर्ध्वाम् । दिशम् । अनु । वि । अचलत् ॥६.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 6; मन्त्र » 4
विषय - ईश्वर के सर्वस्वामी होने का उपदेश।
पदार्थ -
(सः) वह [व्रात्यपरमात्मा] (ऊर्ध्वाम्) ऊँची (दिशम् अनु) दिशा की ओर (वि अचलत्) विचरा ॥४॥
भावार्थ - परमात्मा के सामर्थ्यसे ही अविनाशी विज्ञान और जगत् का नित्य कारण और कार्यरूप सूर्य आदि पदार्थउत्पन्न होते हैं, ऐसा दृढज्ञानी पुरुष ईश्वरीय सत्यज्ञान को, कारणरूप औरकार्यरूप जगत् को यथावत् जानकर आनन्द पाता है ॥४, ५, ६॥
टिप्पणी -
४−(सः) व्रात्यः (ऊर्ध्वाम्) उपरिवर्तमानाम् ॥