अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 32/ मन्त्र 6
सह॑स्व नो अ॒भिमा॑तिं॒ सह॑स्व पृतनाय॒तः। सह॑स्व॒ सर्वा॑न्दु॒र्हार्दः॑ सु॒हार्दो॑ मे ब॒हून्कृ॑धि ॥
स्वर सहित पद पाठसह॑स्व। नः॒। अ॒भिऽमा॑तिम्। सह॑स्व। पृ॒त॒ना॒ऽय॒तः। सह॑स्व। सर्वा॑न्। दुः॒ऽहार्दः॑। सु॒ऽहार्दः॑। मे॒। ब॒हून्। कृ॒धि॒ ॥३२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
सहस्व नो अभिमातिं सहस्व पृतनायतः। सहस्व सर्वान्दुर्हार्दः सुहार्दो मे बहून्कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठसहस्व। नः। अभिऽमातिम्। सहस्व। पृतनाऽयतः। सहस्व। सर्वान्। दुःऽहार्दः। सुऽहार्दः। मे। बहून्। कृधि ॥३२.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 32; मन्त्र » 6
विषय - शत्रुओं के हराने का उपदेश।
पदार्थ -
[हे परमेश्वर !] (नः) हमारे (अभिमातिम्) अभिमानी शत्रु को (सहस्व) हरा और (पृतनायतः) सेनाएँ चढ़ा लानेवालों को (सहस्व) हरा। (सर्वान्) सब (दुर्हार्दः) दुष्ट हृदयवालों को (सहस्व) हरा, (मे) मेरे लिये (बहून्) बहुत (सुहार्दः) शुभ हृदयवाले लोग (कृधि) कर ॥६॥
भावार्थ - मनुष्य परमेश्वर की उपासना करके दुष्टों का अपमान और शिष्टों का सन्मान करें ॥६॥
टिप्पणी -
६−(सहस्व) अभिभव (नः) अस्माकम् (अभिमातिम्) अ०२।७।४।अभिमानिनं शत्रुम् (सहस्व) (पृतनायतः) अ०१९।२८।५। पृतनाः सेना आत्मन इच्छतः शत्रून् (सहस्व) (सर्वान्) (दुर्हार्दः) अ०१९।२८।२। दुष्टहृदयान् (सुहार्दः) अ०३।२८।५। शुभहृदयान् (मे) (मह्यम्) (बहून्) (कृधि) कुरु ॥