अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 32/ मन्त्र 8
प्रि॒यं मा॑ दर्भ कृणु ब्रह्मराज॒न्याभ्यां शू॒द्राय॒ चार्या॑य च। यस्मै॑ च का॒मया॑महे॒ सर्व॑स्मै च वि॒पश्य॑ते ॥
स्वर सहित पद पाठप्रि॒यम्। मा॒। द॒र्भ॒। कृ॒णु॒। ब्र॒ह्म॒ऽरा॒ज॒न्या᳡भ्याम्। शू॒द्राय॑। च॒। आर्या॑य। च॒। यस्मै॑। च॒। का॒मया॑महे। सर्व॑स्मै। च॒। वि॒ऽपश्यते॑ ॥३२.८॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रियं मा दर्भ कृणु ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च। यस्मै च कामयामहे सर्वस्मै च विपश्यते ॥
स्वर रहित पद पाठप्रियम्। मा। दर्भ। कृणु। ब्रह्मऽराजन्याभ्याम्। शूद्राय। च। आर्याय। च। यस्मै। च। कामयामहे। सर्वस्मै। च। विऽपश्यते ॥३२.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 32; मन्त्र » 8
विषय - शत्रुओं के हराने का उपदेश।
पदार्थ -
(दर्भ) हे दर्भ ! [शत्रुविदारक परमेश्वर] (मा) मुझको (ब्रह्मराजन्याभ्याम्) ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिये (च) और (आर्याय) वैश्य के लिये (च) और (शूद्राय) शूद्र के लिये (च) और (यस्मै) जिसके लिये (कामयामहे) हम चाह करते हैं [उसके लिये], (च) और (सर्वस्मै) प्रत्येक (विपश्यते) विविध प्रकार देखनेवाले पुरुष के लिये (प्रियम्) प्रिय (कृणु) कर ॥८॥
भावार्थ - मनुष्य को योग्य है कि परमेश्वरोक्त वेद द्वारा ऐसा प्रयत्न करें कि जिससे वे समस्त संसार का हित कर सकें ॥८॥
टिप्पणी -
इस मन्त्र का मिलान करो-अ०१९।६२।१। और यजुर्वेद १८।४८॥८−(प्रियम्) प्रीतिकरम् (मा) माम् (दर्भ) हे शत्रुविदारक परमेश्वर (कृणु) कर (ब्रह्मराजन्याभ्याम्) ब्रह्मणे ब्राह्मणाय राजन्याय क्षत्रियाय च (शूद्राय) मूर्खाय (च) (आर्याय) ऋ गतिप्रापणयोः-ण्यत्। आर्य इति ब्राह्मणः क्षत्रियवैश्यानां पर्यायवचनम्। अत्र ब्रह्मराजन्यशब्दयोः श्रवणाद् वैश्यवाचकः। वैश्याय (च) (यस्मै) पुरुषाय (च) (कामयामहे) इच्छां कुर्मः तस्मा इति शेषः (सर्वस्मै) (च) (विपश्यते) अन्विष्यते पुरुषाय। दर्शनशीलाय ॥