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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 32/ मन्त्र 8
    ऋषिः - भृगुः देवता - दर्भः छन्दः - पुरस्ताद्बृहती सूक्तम् - दर्भ सूक्त
    131

    प्रि॒यं मा॑ दर्भ कृणु ब्रह्मराज॒न्याभ्यां शू॒द्राय॒ चार्या॑य च। यस्मै॑ च का॒मया॑महे॒ सर्व॑स्मै च वि॒पश्य॑ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रि॒यम्। मा॒। द॒र्भ॒। कृ॒णु॒। ब्र॒ह्म॒ऽरा॒ज॒न्या᳡भ्याम्। शू॒द्राय॑। च॒। आर्या॑य। च॒। यस्मै॑। च॒। का॒मया॑महे। सर्व॑स्मै। च॒। वि॒ऽपश्यते॑ ॥३२.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रियं मा दर्भ कृणु ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च। यस्मै च कामयामहे सर्वस्मै च विपश्यते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रियम्। मा। दर्भ। कृणु। ब्रह्मऽराजन्याभ्याम्। शूद्राय। च। आर्याय। च। यस्मै। च। कामयामहे। सर्वस्मै। च। विऽपश्यते ॥३२.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 32; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रुओं के हराने का उपदेश।

    पदार्थ

    (दर्भ) हे दर्भ ! [शत्रुविदारक परमेश्वर] (मा) मुझको (ब्रह्मराजन्याभ्याम्) ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिये (च) और (आर्याय) वैश्य के लिये (च) और (शूद्राय) शूद्र के लिये (च) और (यस्मै) जिसके लिये (कामयामहे) हम चाह करते हैं [उसके लिये], (च) और (सर्वस्मै) प्रत्येक (विपश्यते) विविध प्रकार देखनेवाले पुरुष के लिये (प्रियम्) प्रिय (कृणु) कर ॥८॥

    भावार्थ

    मनुष्य को योग्य है कि परमेश्वरोक्त वेद द्वारा ऐसा प्रयत्न करें कि जिससे वे समस्त संसार का हित कर सकें ॥८॥

    टिप्पणी

    इस मन्त्र का मिलान करो-अ०१९।६२।१। और यजुर्वेद १८।४८॥८−(प्रियम्) प्रीतिकरम् (मा) माम् (दर्भ) हे शत्रुविदारक परमेश्वर (कृणु) कर (ब्रह्मराजन्याभ्याम्) ब्रह्मणे ब्राह्मणाय राजन्याय क्षत्रियाय च (शूद्राय) मूर्खाय (च) (आर्याय) ऋ गतिप्रापणयोः-ण्यत्। आर्य इति ब्राह्मणः क्षत्रियवैश्यानां पर्यायवचनम्। अत्र ब्रह्मराजन्यशब्दयोः श्रवणाद् वैश्यवाचकः। वैश्याय (च) (यस्मै) पुरुषाय (च) (कामयामहे) इच्छां कुर्मः तस्मा इति शेषः (सर्वस्मै) (च) (विपश्यते) अन्विष्यते पुरुषाय। दर्शनशीलाय ॥

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    विषय

    वीर्यरक्षण व सर्वप्रियता

    पदार्थ

    १. हे (दर्भ) = रोगों का हिंसन करनेवाले वीर्य! तू (मा) = मुझे (ब्रह्मराजन्याभ्याम्) = ब्राह्मणों व क्षत्रियों के लिए, (शूद्राय च अर्याय च) शूद्रों के लिए और वैश्यों के लिए, अर्थात् सारे समाज के लिए (प्रियं कृणु) = प्रियकर। वीर्यरक्षण द्वारा मधुर स्वभाव बनता हुआ मैं सर्वप्रिय बनूँ। २. (च) = और (यस्मै) = जिसके लिए हम (कामयामहे) = चाहते है, अर्थात् जो हमारे निकट सम्बन्धी हैं उनका भी तू मुझे प्रिय बना (च) = तथा (सर्वस्मै विपश्यते) = बारीकी से सब दोषों को देखनेवालों के लिए भी तू मुझे प्रिय बना। दोषदर्शी-विरोधी वृत्तिवाले मनुष्य भी मेरे प्रति प्रेमवाले बन जाऍ|

    भावार्थ

    वीर्यरक्षण से स्वभाव में माधुर्य का सञ्चार करता हुआ मैं सम्पूर्ण समाज का, अपने बन्धुओं का व विरोधियों का भी प्रिय बन पाऊँ।

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    भाषार्थ

    (दर्भ) हे द्वेषविदारक परमेश्वर! (मा) मुझे (ब्रह्मराजन्याभ्याम्) ब्राह्मणों और राज्य करनेवाले क्षत्रियों के प्रति (प्रियम्) प्यारा (कृणु) कीजिए। (च) और (शूद्राय) शूद्रों के प्रति (च) तथा (आर्याय या अर्याय) श्रेष्ठजन के प्रति या वैश्य के प्रति प्यारा कीजिए। (च) और (यस्मै कामयामहे) जिसकी हम कामना करते हैं, उसके प्रति (च) और (सर्वस्मै) सब (विपश्यते) विविध जगत् के द्रष्टाओं के प्रति मुझे प्यारा कीजिये=बनाइए।

    टिप्पणी

    [चार्याय=च+अर्याय—इस छेद द्वारा वैश्य का भी ग्रहण हो जाता है। “अर्यः स्वामिवैश्ययोः” (अष्टा० ३.१.१०३)।]

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    विषय

    शत्रुदमनकारी ‘दर्भ’ नामक सेनापति।

    भावार्थ

    हे (दर्भ) शत्रुनाशन ! तू (मा) मुझको (ब्रह्मराजन्याभ्याम्) ब्राह्मणों और क्षत्रियों, (शूद्राय च अर्याय च) शूदों और वैश्यों का भी अथवा (शूदाय च आर्याय च शूद्रों) और आर्य श्रेष्ठ पुरुषों का और (यस्मै ह) जिसको हम (कामयामहे) चाहते हैं और जो (विवश्यते) अपने विपरीत शत्रु भाव से हमें रखते हैं (सर्वस्मै च) उन सब का भी (मा) मुझे (प्रियं कृणु) प्रिय बना सबका प्रेमपात्र बनादे।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘सूर्याय चार्याय च’ इति बहुत्र।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सर्वकाम आयुष्कामोभृगु र्ऋषिः। मन्त्रोक्तो दर्भो देवता। ८ परस्ताद् बृहती। ९ त्रिष्टुप्। १० जगती। शेषा अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Darbha

    Meaning

    O Darbha, destroyer and preserver, eternal sanative, render me dear and loving to and loved by all Brahmanas, Kshatriyas, Vaishyas, Shudras, whoever we love and desire, and all those who have the eye to see (and discriminate right and wrong).

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    Translation

    O darbha, may you make me pleasing to the intellectuals and the warrior-administrators, to the employees as well as the employers; to him, who desire, and to every one who discerns.

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    Translation

    Let this Darbha make me favorable to the statesman and ruling forces of the society and to the traders peasants and labours, Let this make me favorable to him whom we like and to him who bears enemity with me.

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    Translation

    O kusha-grass, by your energising qualities,, endear me to the Brahmans, Kshatriya, Shudras and the Vaishya. Make us Lovable to him, whom we desire and all those who even look down upon us, or who specially look to us for help and guidance.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    इस मन्त्र का मिलान करो-अ०१९।६२।१। और यजुर्वेद १८।४८॥८−(प्रियम्) प्रीतिकरम् (मा) माम् (दर्भ) हे शत्रुविदारक परमेश्वर (कृणु) कर (ब्रह्मराजन्याभ्याम्) ब्रह्मणे ब्राह्मणाय राजन्याय क्षत्रियाय च (शूद्राय) मूर्खाय (च) (आर्याय) ऋ गतिप्रापणयोः-ण्यत्। आर्य इति ब्राह्मणः क्षत्रियवैश्यानां पर्यायवचनम्। अत्र ब्रह्मराजन्यशब्दयोः श्रवणाद् वैश्यवाचकः। वैश्याय (च) (यस्मै) पुरुषाय (च) (कामयामहे) इच्छां कुर्मः तस्मा इति शेषः (सर्वस्मै) (च) (विपश्यते) अन्विष्यते पुरुषाय। दर्शनशीलाय ॥

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