अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 32/ मन्त्र 7
द॒र्भेण॑ दे॒वजा॑तेन दि॒वि ष्ट॒म्भेन॒ शश्व॒दित्। तेना॒हं शश्व॑तो॒ जनाँ॒ अस॑नं॒ सन॑वानि च ॥
स्वर सहित पद पाठद॒र्भेण॑। दे॒वऽजा॑तेन। दि॒वि। स्त॒म्भेन॑। शश्व॑त्। इत्। तेन॑। अ॒हम्। शश्व॑तः। जना॑न्। अस॑नम्। सन॑वानि। च॒ ॥३२.७॥
स्वर रहित मन्त्र
दर्भेण देवजातेन दिवि ष्टम्भेन शश्वदित्। तेनाहं शश्वतो जनाँ असनं सनवानि च ॥
स्वर रहित पद पाठदर्भेण। देवऽजातेन। दिवि। स्तम्भेन। शश्वत्। इत्। तेन। अहम्। शश्वतः। जनान्। असनम्। सनवानि। च ॥३२.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
शत्रुओं के हराने का उपदेश।
पदार्थ
(देवजातेन) विद्वानों में प्रसिद्ध, (दिवि) आकाश में (स्तम्भेन) स्तम्भरूप, (ते) उस (दर्भेण) दर्भ [शत्रुविदारक परमेश्वर] के साथ (शश्वत्) सदा (इत्) ही (अहम्) मैंने (शश्वतः) नित्य वर्तमान (जनान्) पामर लोगों को (असनम्) जीता है, (च) और (सनवानि) जीतूँ ॥७॥
भावार्थ
जिस परमात्मा ने सूर्य आदि लोकों को नियम के साथ आकर्षण में रक्खा है, उसकी उपासना करके मनुष्य दुष्टों को दण्ड दे, शिष्टों का सत्कार करे ॥७॥
टिप्पणी
७−(दर्भेण) शत्रुविदारकेण परमेश्वरेण (देवजातेन) विद्वत्सु प्रसिद्धेन (दिवि) आकाशे (स्तम्भेन) स्तम्भरूपेण (शश्वत्) सर्वदा (इत्) एव (तेन) परमेश्वरेण (अहम्) (शश्वतः) नित्यवर्तमानान् (जनान्) पामरलोकान् (असनम्) षण संभक्तौ-लङ्। जितवानस्मि (सनवानि) षण-लोट्। जयानि (च) ॥
विषय
'दिविष्टम्भ' दर्भमणि
पदार्थ
१. (देवजातेन) = उस महान् देव प्रभु से उत्पन्न किये गये-प्रभु ने ही तो शरीर में रस-रुधिर आदि के क्रम से इसके उत्पादन की व्यवस्था की है (दिवि ष्टम्भेन) = प्राणायाम द्वारा जिस वीर्य की ऊर्ध्वगति करके मस्तिष्करूप द्युलोक में स्थिरता हुई है (तेन) = उस दिविष्टम्भ [स्तम्भ] वीर्य से (शश्वत् इत्) = सदा ही निश्चय से (अहम्) = मैं (शश्वत:) = प्लुतगतिवाले [शश् प्लुतगती] (जनान्) = लोगों को (असनम्) = प्राप्त करता आया हूँ सनवानि च और भविष्य में भी ऐसे ही लोगों को प्राप्त करूँ। २. जब एक घर में पति-पत्नी प्रभु-स्मरणपूर्वक प्राणायामादि साधनों से शरीर में वीर्य की ऊर्ध्वगतिवाले होते हैं तब उनके घरों में सदा स्फूर्तिमय जीवनवाले सन्तानों की उत्पत्ति होती
भावार्थ
हम वीर्य को प्रभु-प्रदत्त सर्वोत्तम बस्तु जानें। प्राणायाम द्वारा शरीर में इसकी ऊर्ध्वगति करें। यह हमें स्फूर्तिमय जीवनवाले सन्तानों को प्राप्त कराएगा।
भाषार्थ
(देवजातेन) देवकोटि के उपासकों द्वारा प्रकट हुए, साक्षात् किये गये (दिवि) द्युलोक में (स्तम्भेन) तारागणों को थामनेवाले (तेन) उस (दर्भेण) अविद्याग्रन्थिविदारक परमेश्वर की सहायता द्वारा (अहम्) मैंने (शश्वत् इत्) सदा ही (शश्वतः) शाश्वतकाल से (जनान्) उत्पन्न कामादि को (असनम्) पराभव प्रदान किया है, (च) और (सनवानि) परमेश्वर की कृपा से मैं आगे भी पराभव प्रदान करता रहूँ।
टिप्पणी
[जनान्= यथा “पञ्चजनाः” का अर्थ है ५ ज्ञानेन्द्रियां। असनम्, सनवानि=षणु दाने। असनम् (लङ्); सनवानि (लोट्)।]
विषय
शत्रुदमनकारी ‘दर्भ’ नामक सेनापति।
भावार्थ
(दिवि) द्युलोक, महान् आकाश में जिस प्रकार सूर्य अपनी शक्ति से समस्त ग्रहों को थामे रहता है उसी प्रकार (शश्वत् इत्) निरन्तर ही (स्तम्भेन) राष्ट्र के उत्तम भाग में स्थित होकर सबको थामने वाले (दर्भेण) शत्रु नाशक (तेन) उस पुरुष द्वारा (शश्वतः) निरन्तर रहने वाले, दीर्घजीवी (जनान्) जनों को (असनम्) प्राप्त करूं, अपने वश करूं और (सनवानि च) अपने वश किये रहूं।
टिप्पणी
(च०) ‘असनाम्’, ‘असनान्त्स’, ‘असनात्’, ‘जनानसनम्’ इति पाठाः॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सर्वकाम आयुष्कामोभृगु र्ऋषिः। मन्त्रोक्तो दर्भो देवता। ८ परस्ताद् बृहती। ९ त्रिष्टुप्। १० जगती। शेषा अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Darbha
Meaning
By Darbha, eternal destroyer and preserver, realised by brilliant divines, all sustaining master in heaven, I, eternal too, always win people over, and I pray I may continue to win.
Translation
With the darbha, born of the bounties of Nature and ever upholder of the sky, I have always won men and may I win them (in future).
Translation
I, through this Darbha which is produced by natural forces and which has its staminal power in the sun always give the health to People living always and do this further.
Translation
As there is perpetual growth attained by darbha born of natural forces, firmly established in heavens, so may I create, by its help, the perpetual attainment of people, as progeny and brave warriors.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(दर्भेण) शत्रुविदारकेण परमेश्वरेण (देवजातेन) विद्वत्सु प्रसिद्धेन (दिवि) आकाशे (स्तम्भेन) स्तम्भरूपेण (शश्वत्) सर्वदा (इत्) एव (तेन) परमेश्वरेण (अहम्) (शश्वतः) नित्यवर्तमानान् (जनान्) पामरलोकान् (असनम्) षण संभक्तौ-लङ्। जितवानस्मि (सनवानि) षण-लोट्। जयानि (च) ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal