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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 32/ मन्त्र 4
    ऋषिः - भृगुः देवता - दर्भः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दर्भ सूक्त
    49

    ति॒स्रो दि॒वो अत्य॑तृणत्ति॒स्र इ॑माः पृथि॒वीरु॒त। त्वया॒हं दु॒र्हार्दो॑ जि॒ह्वां नि तृ॑णद्मि॒ वचां॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ति॒स्रः। दि॒वः। अति॑। अ॒तृ॒ण॒त्। ति॒स्रः। इ॒माः। पृ॒थि॒वीः। उ॒त। त्वया॑। अ॒हम्। दुः॒ऽहार्दः॑। जि॒ह्वाम्। नि। तृ॒ण॒द्मि॒। वचां॑सि ॥३२.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तिस्रो दिवो अत्यतृणत्तिस्र इमाः पृथिवीरुत। त्वयाहं दुर्हार्दो जिह्वां नि तृणद्मि वचांसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तिस्रः। दिवः। अति। अतृणत्। तिस्रः। इमाः। पृथिवीः। उत। त्वया। अहम्। दुःऽहार्दः। जिह्वाम्। नि। तृणद्मि। वचांसि ॥३२.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 32; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    शत्रुओं के हराने का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे परमेश्वर !] (तिस्रः) तीनों [उत्कृष्ट, निकृष्ट, मध्यम] (दिवः) प्रकाशों को (उत) और (इमाः) इन (तिस्रः) तीनों (पृथिवीः) पृथिवियों को (अति अतृणत्) तूने आर-पार छेदा है। (त्वया) तेरे साथ (अहम्) मैं (दुर्हार्दः) दुष्ट हृदयवाले की (जिह्वाम्) जीभ को और (वचांसि) वचनों को (नि) दृढ़ता से (तृणद्भि) छेदता हूँ ॥४॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य परमात्मा को त्रिकालपति और त्रिलोकीनाथ जानकर पुरुषार्थ करते हैं, वे अन्यथाकारी शत्रुओं को वश में रखते हैं ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(तिस्रः) त्रिविधाः, उत्तमनिकृष्टमध्यमरूपेण (दिवः) प्रकाशान् (अति) अतीत्य (अतृणत्) उतृदिर् हिंसानादरयोः-लङ्, मध्यमपुरुषस्यैकवचनम् अतृणः। छिन्नवानसि (तिस्रः) (इमाः) दृश्यमानाः (पृथिवीः) (उत) अपि (त्वया) (अहम्) (दुर्हार्दः) दुष्टहृदयस्य (जिह्वाम्) रसनाम् (नि) दृढम् (तृणद्मि) छिनद्मि (वचांसि) वचनानि ॥४॥

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    विषय

    दुर्हाद् का सुहार्द् बन जाना

    पदार्थ

    १. हे वीर्यमणे! तू (तिस्त्र: दिव:) = तीनों प्रकाशों को [धुलोकों को] अत्यतृणत् [तृ to set free] अन्धकार से मुक्त करती है। (उत) = और (इमा:) = इन (तिस्त्रः) = तीनों (पृथिवी:) = शरीररूप पृथिवियों को भी रोगों से मुक्त करती है। 'स्थूल, सूक्ष्म व कारण' भेद से तीन शरीर ही तीन पृथिवियाँ है। वीर्यरक्षण से ये तीनों नीरोग व निर्दोष बनते हैं। इसीप्रकार 'प्रकृति, जीव व परमात्मा' का ज्ञान ही त्रिविध द्युलोक है, वीर्यरक्षण ही इस धुलोक को अज्ञानान्धकार शून्य करता है। २. हे वीर्य! (त्वया) = तेरे रक्षण के द्वारा (अहम्) = मैं (दुर्हादः) = दुष्ट हृदयवाले की (जिह्वाम्) = जिह्वा को तथा (वचांसि) = वचनों को (नितृणनि) = समाप्त करता हूँ। वीर्यरक्षक पुरुष व्यवहार में इतना मधुर होता है कि इसके मधुर वचनों से दुष्ट पुरुष भी शान्त हो जाता है। इसका सूत्र होता है 'अक्रोधेन जयेत् क्रोध, आक्रुष्टः कुशलं वदेत् । सो दुर्दा पुरुष भी इसके व्यवहार से सुहा बन जाता है।

    भावार्थ

    वीर्यरक्षण से 'प्रकृति, जीव, परमात्मा का ज्ञान प्राप्त होता है। 'स्थूल, सूक्ष्म, कारण' शरीरों का स्वास्थ्य प्राप्त होता है तथा वह हमें इतना मधुर बनाता है कि इसके सामने दुष्ट अपनी दुष्टता छोड़ देते हैं।

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    भाषार्थ

    परमेश्वर प्रलय में (तिस्रः) तीन (दिवः) द्युलोकों को (उत) और (इमाः) इन (तिस्रः) तीन (पृथिवीः) पृथिवियों को (अतृणत्)१ विनष्ट कर देता है। हे परमेश्वर! (त्वया) आपकी सहायता द्वारा (अहम्) मैं आपका उपासक (दुर्हार्दः) कुत्सित हृदयवालों की (जिह्वाम्) जिह्वा को, अर्थात् (वचांसि) दुर्वचनों को (तृणद्मि) समाप्त कर देता हूँ, उन दुर्वचनों का अनादर करता हूँ।

    टिप्पणी

    [सर्वशक्तिमान् परमेश्वर के सच्चे उपासक को यह शक्ति प्राप्त हो जाती है कि उसके निन्दक भी उसके प्रशंसक हो जाते हैं, उनकी जिह्वा की कटुता मधुरूप में परिणत हो जाती है। तिस्रः दिवः, तिस्रः पृथिवीः=देखो—अथर्व काण्ड १९। सू० २७। मन्त्र ३।] [१. तृदिर् हिंसानादरयोः]

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    विषय

    शत्रुदमनकारी ‘दर्भ’ नामक सेनापति।

    भावार्थ

    शत्रुनाशकारी पुरुष (तिस्रः दिवः) तीनों द्यौलोक और (इमाः तिस्रः पृथिवीः) इन तीनों पृथिवियों को (अति अतृणत्) पारकर जाता है। (त्वया) तेरे बल से (अहम्) मैं राजा (दुर्हादः) दुष्ट हृदय वाले पुरुष के (जिह्वां) जीभ और (वचांसि) वचनों को (नि तृणद्मि) सर्वथा नाश करूं।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘तिस्रो द्यां पृथिवीरुत’, (च०) ‘नितृणद्मि वचांसि च’ इति पैप्प० सं०, क्वचित् च। (प्र०) ‘अत्यतृणः’। इति सायणाभिमतः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सर्वकाम आयुष्कामोभृगु र्ऋषिः। मन्त्रोक्तो दर्भो देवता। ८ परस्ताद् बृहती। ९ त्रिष्टुप्। १० जगती। शेषा अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Darbha

    Meaning

    O Darbha, destroyer and preserver, you pervade the three heavens and these three regions of the earth, you penetrate and break the negativities to join the positivities. With you as sanative saviour, I pierce through the tongue of the evil hearted and disintegrate their words.

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    Translation

    You have pierced through the three heavens and also these earths; with you I split the tongue and the utterings of (my) ill-wisher.

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    Translation

    This Darbha pierces three skies and three earths. I through this pierce the tongue and speaking power of the melignant ones.

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    Translation

    O darbha, thy penetrating radiation through the three spectra, the ultra-violet, the common and the infra-red and also the three earths,' i.e., the well-known earth, the dust particles and the meteorites. By thy help I may pierce the very tongue and voice of the evil-minded enemies (i.e., I am able to jam their broadcasts).

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(तिस्रः) त्रिविधाः, उत्तमनिकृष्टमध्यमरूपेण (दिवः) प्रकाशान् (अति) अतीत्य (अतृणत्) उतृदिर् हिंसानादरयोः-लङ्, मध्यमपुरुषस्यैकवचनम् अतृणः। छिन्नवानसि (तिस्रः) (इमाः) दृश्यमानाः (पृथिवीः) (उत) अपि (त्वया) (अहम्) (दुर्हार्दः) दुष्टहृदयस्य (जिह्वाम्) रसनाम् (नि) दृढम् (तृणद्मि) छिनद्मि (वचांसि) वचनानि ॥४॥

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