अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 32/ मन्त्र 7
द॒र्भेण॑ दे॒वजा॑तेन दि॒वि ष्ट॒म्भेन॒ शश्व॒दित्। तेना॒हं शश्व॑तो॒ जनाँ॒ अस॑नं॒ सन॑वानि च ॥
स्वर सहित पद पाठद॒र्भेण॑। दे॒वऽजा॑तेन। दि॒वि। स्त॒म्भेन॑। शश्व॑त्। इत्। तेन॑। अ॒हम्। शश्व॑तः। जना॑न्। अस॑नम्। सन॑वानि। च॒ ॥३२.७॥
स्वर रहित मन्त्र
दर्भेण देवजातेन दिवि ष्टम्भेन शश्वदित्। तेनाहं शश्वतो जनाँ असनं सनवानि च ॥
स्वर रहित पद पाठदर्भेण। देवऽजातेन। दिवि। स्तम्भेन। शश्वत्। इत्। तेन। अहम्। शश्वतः। जनान्। असनम्। सनवानि। च ॥३२.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 32; मन्त्र » 7
विषय - शत्रुओं के हराने का उपदेश।
पदार्थ -
(देवजातेन) विद्वानों में प्रसिद्ध, (दिवि) आकाश में (स्तम्भेन) स्तम्भरूप, (ते) उस (दर्भेण) दर्भ [शत्रुविदारक परमेश्वर] के साथ (शश्वत्) सदा (इत्) ही (अहम्) मैंने (शश्वतः) नित्य वर्तमान (जनान्) पामर लोगों को (असनम्) जीता है, (च) और (सनवानि) जीतूँ ॥७॥
भावार्थ - जिस परमात्मा ने सूर्य आदि लोकों को नियम के साथ आकर्षण में रक्खा है, उसकी उपासना करके मनुष्य दुष्टों को दण्ड दे, शिष्टों का सत्कार करे ॥७॥
टिप्पणी -
७−(दर्भेण) शत्रुविदारकेण परमेश्वरेण (देवजातेन) विद्वत्सु प्रसिद्धेन (दिवि) आकाशे (स्तम्भेन) स्तम्भरूपेण (शश्वत्) सर्वदा (इत्) एव (तेन) परमेश्वरेण (अहम्) (शश्वतः) नित्यवर्तमानान् (जनान्) पामरलोकान् (असनम्) षण संभक्तौ-लङ्। जितवानस्मि (सनवानि) षण-लोट्। जयानि (च) ॥