अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 44/ मन्त्र 6
देवा॑ञ्जन॒ त्रैक॑कुदं॒ परि॑ मा पाहि वि॒श्वतः॑। न त्वा॑ तर॒न्त्योष॑धयो॒ बाह्याः॑ पर्व॒तीया॑ उ॒त ॥
स्वर सहित पद पाठदेव॑ऽआञ्जन॑। त्रैक॑कुदम्। परि॑। मा॒। पा॒हि॒। वि॒श्वतः॑। न। त्वा॒। त॒र॒न्ति॒। ओष॑धयः। बाह्याः॑। प॒र्व॒तीयाः॑। उ॒त ॥४४.६॥
स्वर रहित मन्त्र
देवाञ्जन त्रैककुदं परि मा पाहि विश्वतः। न त्वा तरन्त्योषधयो बाह्याः पर्वतीया उत ॥
स्वर रहित पद पाठदेवऽआञ्जन। त्रैककुदम्। परि। मा। पाहि। विश्वतः। न। त्वा। तरन्ति। ओषधयः। बाह्याः। पर्वतीयाः। उत ॥४४.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 44; मन्त्र » 6
विषय - ब्रह्म की उपासना का उपदेश।
पदार्थ -
(देवाञ्जन) हे देवाञ्जन ! [दिव्यस्वरूप, संसार के प्रकट करनेवाले ब्रह्म] (त्रैककुदम्) तीन [आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक] सुखों का पहुँचानेवाला तू (मा) मुझे (विश्वतः) सब ओर (परिपाहि) बचाता रहे। (बाह्याः) बाहिरी [पर्वतों से भिन्न स्थानों में उत्पन्न] (उत) और (पर्वतीयाः) पहाड़ी (ओषधयः) ओषधियाँ (त्वा) तुझसे (न) नहीं (तरन्ति) बढ़कर होती हैं ॥६॥
भावार्थ - जो मनुष्य परमात्मा के नियमों पर चलते हैं, उन्हें भौतिक ओषधियों की आवश्यकता नहीं होती ॥६॥
टिप्पणी -
६−(देवाञ्जन) हे दिव्य, हे संसारस्य व्यक्तिकारक ब्रह्म (त्रैककुदम्) अ०४।९।९-१०। त्रि+क+कुत्-अण्। कं सुखम्-निघ०३।६। कवते गतिकर्मा-निघ०२।१४। कुङ् गतिशोषणयोः-क्विप्, तुक् च, अन्तर्गतण्यर्थः तस्य दः आध्यात्मिकादीनि त्रीणि कानि सुखानि कावयति गमयतीति त्रिककुत्, स्वार्थे अण्, त्रिककुदमेव त्रिककुत्। त्रयाणां सुखानां प्रापकम् (परि) (मा) माम् (पाहि) रक्ष (विश्वतः) सर्वतः (न) निषेधे (त्वा) त्वाम् (तरन्ति) लङ्घयन्ति (ओषधयः) औषधानि (बाह्याः) बहिस्-ष्यञ्। बहिर्भवाः। पर्वतव्यतिरेकस्थलेषूत्पन्नाः (पर्वतीयाः) पर्वत-छ प्रत्ययः पर्वतेषु भवाः (उत) अपि च ॥