अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 44/ मन्त्र 10
मि॒त्रश्च॑ त्वा॒ वरु॑णश्चानु॒प्रेय॑तुराञ्जन। तौ त्वा॑नु॒गत्य॑ दू॒रं भो॒गाय॒ पुन॒रोह॑तुः ॥
स्वर सहित पद पाठस्वर रहित मन्त्र
मित्रश्च त्वा वरुणश्चानुप्रेयतुराञ्जन। तौ त्वानुगत्य दूरं भोगाय पुनरोहतुः ॥
स्वर रहित पद पाठ अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 44; मन्त्र » 10
विषय - ब्रह्म की उपासना का उपदेश।
पदार्थ -
(आञ्जन) हे आञ्जन ! [संसार के प्रकट करनेवाले ब्रह्म] [मेरे] (मित्रः) प्राणः (च च) और (वरुणः) अपान दोनों (त्वा अनुप्रेयतुः) तेरे पीछे-आगे चले गये हैं। (तौ) वे दोनों (दूरम्) दूर तक (अनुगत्य) पीछे चलकर (त्वा) तुझको (भोगाय) सुख भोगने के लिये (पुनः) फिर (आ ऊहतुः) ले आये हैं ॥१०॥
भावार्थ - जो मनुष्य प्राण और अपान अर्थात् पूरे सामर्थ्य से परमात्मा को दूर-दूर तक खोजते हैं, वे ही उसको अपने समीप पाकर आनन्द भोगते हैं ॥१०॥
टिप्पणी -
१०−(मित्रः) मम प्राणः (च) (त्वा) त्वां परमात्मानम् (वरुणः) अपानः (च) (अनुप्रेयतुः) इण् गतौ-लिट्। अनुसृत्य अग्रे जग्मतुः (आञ्जन) म०१। संसारस्य व्यक्तीकारक ब्रह्म (तौ) प्राणापानौ (त्वा) त्वाम् (अनुगत्य) अनुसृत्य (भोगाय) सुखानुभवाय (पुनः) (आ ऊहतुः) वह प्रापणे-लिट्। आनीतवन्तौ ॥