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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 13

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 13/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायुप्राप्ति सूक्त

    परी॒दं वासो॑ अधिथाः स्व॒स्तयेऽभू॑र्गृष्टी॒नाम॑भिशस्ति॒पा उ॑। श॒तं च॒ जीव॑ श॒रदः॑ पुरू॒ची रा॒यश्च॒ पोष॑मुप॒संव्य॑यस्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । इ॒दम् । वास॑: । अ॒धि॒था॒: । स्व॒स्तये॑ । अभू॑: । गृ॒ष्टी॒नाम् । अ॒भि॒श॒स्ति॒ऽपा: । ऊं॒ इति॑ । श॒तम् । च॒ । जीव॑ । श॒रद॑: । पु॒रू॒ची: । रा॒य: । च॒ । पोष॑म् । उ॒प॒ऽसंव्य॑यस्व ॥१३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परीदं वासो अधिथाः स्वस्तयेऽभूर्गृष्टीनामभिशस्तिपा उ। शतं च जीव शरदः पुरूची रायश्च पोषमुपसंव्ययस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । इदम् । वास: । अधिथा: । स्वस्तये । अभू: । गृष्टीनाम् । अभिशस्तिऽपा: । ऊं इति । शतम् । च । जीव । शरद: । पुरूची: । राय: । च । पोषम् । उपऽसंव्ययस्व ॥१३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 13; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    [हे ब्रह्मचारिन् !] (इदम्) इस (वासः) वस्त्र को (स्वस्तये) आनन्द बढ़ाने के लिये (परि+अधिथाः) तूने धारण किया है और (गृष्टीनाम्) ग्रहणीया गौओं की (अभिशस्तिपाः) हिंसा से रक्षा करनेवाला (उ) अवश्य (अभूः) तू हुआ है। (च) निश्चय करके (पुरूचीः) बहुत पदार्थों से व्याप्त (शतम्) सौ (शरदः) शरद् ऋतुओं तक (जीव) तू जीवित रह, (च) और (रायः) धन की (पोषम्) पुष्टि [वृद्धि] को (उप–सं–व्ययस्व) अपने सब ओर धारण कर ॥३॥

    भावार्थ - विद्वान् लोग ब्रह्मचारी को विदित कर दें कि यह उसकी विद्या का सन्मान इसलिये किया गया है कि संसार में गौ आदि उपकारी पदार्थों और विद्या धन और सुवर्ण आदि धन की वृद्धि करके कीर्त्तियुक्त जीवन व्यतीत करे ॥३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से अथर्ववेद १९।२४।६। में है ॥

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