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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 27

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 27/ मन्त्र 3
    सूक्त - कपिञ्जलः देवता - ओषधिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुपराजय सूक्त

    इन्द्रो॑ ह चक्रे त्वा बा॒हावसु॑रेभ्य॒ स्तरी॑तवे। प्राशं॒ प्रति॑प्राशो जह्यर॒सान्कृ॑ण्वोषधे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । ह॒ । च॒क्रे॒ । त्वा॒ । बा॒हौ । असु॑रेभ्य: । स्तरी॑तवे । प्राश॑म् । प्रति॑ऽप्राश: । ज॒हि॒ । अ॒र॒सान् । कृ॒णु॒ । ओ॒ष॒धे॒ ॥२७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो ह चक्रे त्वा बाहावसुरेभ्य स्तरीतवे। प्राशं प्रतिप्राशो जह्यरसान्कृण्वोषधे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । ह । चक्रे । त्वा । बाहौ । असुरेभ्य: । स्तरीतवे । प्राशम् । प्रतिऽप्राश: । जहि । अरसान् । कृणु । ओषधे ॥२७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 27; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष ने (ह) ही (त्वा) तुझको (बाहौ) अपनी भुजा पर (असुरेभ्यः) असुरों से (स्तरीतवे) रक्षा के लिये (चक्रे) किया है। (प्राशम्) [मेरे] प्रश्न के (प्रतिप्राशः) प्रतिवादियों को (जहि) मिटादे, (ओषधे) हे ताप को पीनेवाली [ओषधि के समान बुद्धि ! उन सबको] (अरसान्) फींका (कृणु) कर ॥३॥

    भावार्थ - (इन्द्र) महाप्रतापी महाबली पुरुष ही अपने बुद्धिबल से (असुर) देवताओं के विरोधी अधर्मियों का नाश करते आये हैं, करते हैं और करेंगे ॥३॥ सायणभाष्य में (स्तरीतवे) के स्थान मे [तरीतवे] है ॥

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