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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 28

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 28/ मन्त्र 1
    सूक्त - शम्भुः देवता - जरिमा, आयुः छन्दः - जगती सूक्तम् - दीर्घायु प्राप्ति सूक्त

    तुभ्य॑मे॒व ज॑रिमन्वर्धताम॒यम्मेमम॒न्ये मृ॒त्यवो॑ हिंसिषुः श॒तं ये। मा॒तेव॑ पु॒त्रं प्रम॑ना उ॒पस्थे॑ मि॒त्र ए॑नं मि॒त्रिया॑त्पा॒त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तुभ्य॑म् । ए॒व । ज॒रि॒म॒न् । व॒र्ध॒ता॒म् । अ॒यम् । मा । इ॒मम् । अ॒न्ये । मृ॒त्यव॑: । हिं॒सि॒षु॒: । श॒तम् । ये । मा॒ताऽइ॑व । पु॒त्रम् । प्रऽम॑ना: । उ॒पऽस्थे॑ । मि॒त्र: । ए॒न॒म् । मि॒त्रिया॑त् । पा॒तु॒ । अंह॑स: ॥२८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तुभ्यमेव जरिमन्वर्धतामयम्मेममन्ये मृत्यवो हिंसिषुः शतं ये। मातेव पुत्रं प्रमना उपस्थे मित्र एनं मित्रियात्पात्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तुभ्यम् । एव । जरिमन् । वर्धताम् । अयम् । मा । इमम् । अन्ये । मृत्यव: । हिंसिषु: । शतम् । ये । माताऽइव । पुत्रम् । प्रऽमना: । उपऽस्थे । मित्र: । एनम् । मित्रियात् । पातु । अंहस: ॥२८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 28; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (जरिमन्) हे स्तुतियोग्य परमेश्वर ! (तुभ्यम्) तेरे [शासन मानने के] लिये (एव) ही (अयम्) यह पुरुष (वर्धताम्) बढ़े, (ये) जो (अन्ये) दूसरे (शतम्) सौ (मृत्यवः) मृत्यु हैं, [वे] (इमम्) इस पुरुष को (मा हिंसिषुः) न मारें। (प्रमनाः) प्रसन्नमन (माता इव) माता जैसे (पुत्रम्) कुलशोधक पुत्र को (उपस्थे) गोद में [पालती है, वैसे ही] (मित्रः) मृत्यु से बचानेवाला, वा बड़ा स्नेही परमेश्वर (एनम्) इस पुरुष को (मित्रियात्) मित्रसंबन्धी (अंहसः) पाप से (पातु) बचावे ॥१॥

    भावार्थ - मनुष्य अपने जीवन को सदैव ईश्वर की आज्ञापालन अर्थात् शुभ कर्म करने में बितावे और प्रयत्न करे कि उसका मृत्यु निन्दनीय कामों में कभी न हो और न उसके मित्रों में फूट पड़े और न वे दुष्कर्मी हों और न कोई दुष्ट पुरुष अपने मित्रों को सता सके। जैसे प्रसन्नचित्त विदुषी माता की गोद में बालक निर्भय क्रीड़ा करता है, वैसे ही वह नीतिज्ञ पुरुष परमेश्वर की शरण पाकर अपने भाई-बन्धुओं के बीच सुरक्षित रहकर आनन्द भोगे ॥१॥

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