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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 28

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 28/ मन्त्र 4
    सूक्त - शम्भुः देवता - द्यावापृथिवी, आयुः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु प्राप्ति सूक्त

    द्यौष्ट्वा॑ पि॒ता पृ॑थि॒वी मा॒ता ज॒रामृ॑त्युं कृणुतां संविदा॒ने। यथा॒ जीवा॒ अदि॑तेरु॒पस्थे॑ प्राणापा॒नाभ्यां॑ गुपि॒तः श॒तं हिमाः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्यौ: । त्वा॒ । पि॒ता । पृ॒थि॒वी । मा॒ता । ज॒राऽमृ॑त्युम् । कृ॒णु॒ता॒म् । सं॒वि॒दा॒ने इति॑ स॒म्ऽवि॒दा॒ने । यथा॑ । जीवा॑: । अदि॑ते: । उ॒प‍स्थे॑ । प्रा॒णा॒पा॒नाभ्या॑म् । गु॒पि॒त: । श॒तम् । हिमा॑: ॥२८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्यौष्ट्वा पिता पृथिवी माता जरामृत्युं कृणुतां संविदाने। यथा जीवा अदितेरुपस्थे प्राणापानाभ्यां गुपितः शतं हिमाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्यौ: । त्वा । पिता । पृथिवी । माता । जराऽमृत्युम् । कृणुताम् । संविदाने इति सम्ऽविदाने । यथा । जीवा: । अदिते: । उप‍स्थे । प्राणापानाभ्याम् । गुपित: । शतम् । हिमा: ॥२८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 28; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (पिता) पिता [के समान रक्षक] (द्यौः) सूर्यलोक और (माता) [के समान प्रीति करनेवाली] (पृथिवी) पृथिवीलोक, (संविदाने) दोनों मिले हुए, (त्वा) तुझको (जरामृत्युम्=जरा–अमृत्युं जरा–मृत्युं वा) स्तुति के साथ अमर, अथवा, स्तुति वा बुढ़ापे से मृत्युवाला (कृणुताम्) करें। (यथा) जिससे (अदितेः) अखण्ड परमेश्वर [अथवा अदीन प्रकृति, वा पृथिवी] की (उपस्थे) गोद में (प्राणापानाभ्याम्) प्राण और अपान से (गुपितः) रक्षा किया हुआ तू (शतम्) सौ (हिमाः) हेमन्त ऋतुओं तक (जीवाः) जीता रहे ॥४॥

    भावार्थ - पुरुषार्थी पुरुष प्रबन्ध रक्खे कि सूर्य का तेज और आकर्षण आदि सामर्थ्य और पृथिवी की अन्न आदि की उत्पादनादि शक्ति और अन्य सब पदार्थ अनुकूल रहें, जैसे माता-पिता सन्तानों पर प्रीति रखते हैं, जिससे वह पुरुष परमेश्वर के अनुग्रह से पृथिवी पर यशस्वी होकर पूर्ण आयु भोगे ॥४॥

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