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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 3

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 3/ मन्त्र 3
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - भैषज्यम्, आयुः, धन्वन्तरिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - आस्रावभेषज सूक्त

    नी॒चैः ख॑न॒न्त्यसु॑रा अरु॒स्राण॑मि॒दं म॒हत्। तदा॑स्रा॒वस्य॑ भेष॒जं तदु॒ रोग॑मनीनशत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नी॒चै: । ख॒न॒न्ति॒ । असु॑रा: । अ॒रु॒:ऽस्राण॑म् ।इ॒दम् । म॒हत् । तत् । आ॒ऽस्रा॒वस्य॑ । भे॒ष॒जम् । तत् । ऊं॒ इति॑ । रोग॑म् । अ॒नी॒न॒श॒त् ।३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नीचैः खनन्त्यसुरा अरुस्राणमिदं महत्। तदास्रावस्य भेषजं तदु रोगमनीनशत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नीचै: । खनन्ति । असुरा: । अरु:ऽस्राणम् ।इदम् । महत् । तत् । आऽस्रावस्य । भेषजम् । तत् । ऊं इति । रोगम् । अनीनशत् ।३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (असुराः) बुद्धिमान् पुरुष (इदम्) इस (अरुस्राणम्) व्रण [स्फोर=फोड़े] को पकाकर भर देनेवाली, (महत्) उत्तम औषध को (नीचैः) नीचे-नीचे (खनन्ति) खोदते जाते हैं। (तत्) वही विस्तृत ब्रह्म (आस्रावस्य) बड़े क्लेश की (भेषजम्) औषध है, (तत्) उसने (उ) ही (रोगम्) रोग को (अनीनशत्) नाश कर दिया है ॥३॥

    भावार्थ - जैसे सद्वैद्य बड़े-बड़े परिश्रम और परीक्षा करके उत्तम औषधों को लाकर रोगों की निवृत्ति करके प्राणियों को स्वस्थ करते हैं, वैसे ही विज्ञानियों ने निर्णय किया है कि उस परमेश्वर ने आदि सृष्टि में ही मानसिक और शारीरिक रोगों की ओषधि उत्पन्न कर दी है ॥३॥

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