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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 3

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 3/ मन्त्र 4
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - भैषज्यम्, आयुः, धन्वन्तरिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - आस्रावभेषज सूक्त

    उ॑प॒जीका॒ उद्भ॑रन्ति समु॒द्रादधि॑ भेष॒जम्। तदा॑स्रा॒वस्य॑ भेष॒जं तदु॒ रोग॑मशीशमत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒प॒ऽजीका॑: । उत् । भ॒र॒न्ति॒ । स॒मु॒द्रात् । अधि॑ । भे॒ष॒जम् । तत् । आ॒ऽस्रा॒वस्य॑ । भे॒ष॒जम् । तत् । ऊं॒ इति॑ । रोग॑म् । अ॒शी॒श॒म॒त् ॥३.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपजीका उद्भरन्ति समुद्रादधि भेषजम्। तदास्रावस्य भेषजं तदु रोगमशीशमत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उपऽजीका: । उत् । भरन्ति । समुद्रात् । अधि । भेषजम् । तत् । आऽस्रावस्य । भेषजम् । तत् । ऊं इति । रोगम् । अशीशमत् ॥३.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 3; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (उपजीकाः) [परमेश्वर के] आश्रित पुरुष (समुद्रात् अधि) आकाश [समस्त जगत्] में से (भेषजम्) भयनिवारक ब्रह्म को, (उद्भरन्ति) ऊपर निकालते हैं। (तत्) वही [ब्रह्म] (आस्रावस्य) बड़े क्लेश का (भेषजम्) औषध है, (तत्) उसने (उ) ही (रोगम्) रोग को (अशीशमत्) शान्त कर दिया है ॥४॥

    भावार्थ - परमेश्वर का सहारा रखनेवाले पुरुष संसार के प्रत्येक पदार्थ में ईश्वर को पाते हैं और उस आदिकारण की महिमा को साक्षात् करके अपने सब क्लेशों का नाश करके आनन्द भोगते हैं ॥४॥

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