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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 36

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 36/ मन्त्र 4
    सूक्त - पतिवेदनः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पतिवेदन सूक्त

    यथा॑ख॒रो म॑घवं॒श्चारु॑रे॒ष प्रि॒यो मृ॒गाणां॑ सु॒षदा॑ ब॒भूव॑। ए॒वा भग॑स्य जु॒ष्टेयम॑स्तु॒ नारी॒ संप्रि॑या॒ पत्यावि॑राधयन्ती ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । आ॒ऽख॒र: । म॒घ॒ऽव॒न् । चारु॑: । ए॒ष: । प्रि॒य: । मृ॒गाणा॑म् । सु॒ऽसदा॑: । ब॒भूव॑ । ए॒व । भग॑स्य । जु॒ष्टा । इ॒यम् । अ॒स्तु॒ । नारी॑ । सम्ऽप्रि॑या । पत्या॑ । अवि॑ऽराधयन्ती ॥३६.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथाखरो मघवंश्चारुरेष प्रियो मृगाणां सुषदा बभूव। एवा भगस्य जुष्टेयमस्तु नारी संप्रिया पत्याविराधयन्ती ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । आऽखर: । मघऽवन् । चारु: । एष: । प्रिय: । मृगाणाम् । सुऽसदा: । बभूव । एव । भगस्य । जुष्टा । इयम् । अस्तु । नारी । सम्ऽप्रिया । पत्या । अविऽराधयन्ती ॥३६.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 36; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (मघवन्) हे पूजनीय, वा महाधनी परमेश्वर, (यथा) जैसे (एषः) यह (चारुः) सुन्दर (आखरः) खोह वा माँद (मृगाणाम्) जंगली पशुओं का (प्रियः) प्रिय और (सुषदाः) रमणीक घर (बभूव) हुआ है [होता है], (एव=एवम्) ऐसे ही (इयम्) यह (नारी) नारी (भगस्य) ऐश्वर्यवान् [पति] की (जुष्टा) दुलारी और (संप्रिया) प्रियतमा होकर (पत्या) पति से (अविराधयन्ती) वियोग न करती हुयी (अस्तु) रहे ॥४॥

    भावार्थ - जिस प्रकार आरण्यक नर-नारी पशु आनन्दपूर्वक अपने विलों में विश्राम करते हैं, इसी प्रकार मनुष्यजातीय पति-पत्नी परस्पर मिल-जुलकर उपकार करते हुए सदा सुख से रहें ॥४॥ मनु भगवान् ने कहा है–अ० ५।१४८। बाल्ये पितुर्वशे तिष्ठेत् पाणिग्राहस्य यौवने। पुत्राणां भर्तरि प्रेते न भजेत् स्त्री स्वतन्त्रताम् ॥१॥ स्त्री बालकपन में पिता के, युवावस्था में पति के और पति के मरने पर पुत्रों के वश में रहे, स्त्री स्वतन्त्रता का उपभोग न करे ॥ सायणभाष्य में (मघवन्) के स्थान में [मघवान्] और (अविराधयन्ती) के स्थान में [अभिराधयन्ती=अभि वर्धयन्ती, समृद्धा भवन्ती] है ॥

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