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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 127

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 127/ मन्त्र 5
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा छन्दः - निचृदनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    प्र रे॒भासो॑ मनी॒षा वृषा॒ गाव॑ इवेरते। अ॑मोत॒पुत्र॑का ए॒षाम॒मोत॑ गा॒ इवा॑सते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । रे॒भास॑: । मनी॒षा: । वृषा॒: । गाव॑:ऽइव । ईरते ॥ अ॒मो॒त॒ । पु॒त्र॑का:। ए॒षाम् । अ॒मोत॑ । गा॒:ऽइव । आ॑सते ॥१२७.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र रेभासो मनीषा वृषा गाव इवेरते। अमोतपुत्रका एषाममोत गा इवासते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । रेभास: । मनीषा: । वृषा: । गाव:ऽइव । ईरते ॥ अमोत । पुत्रका:। एषाम् । अमोत । गा:ऽइव । आसते ॥१२७.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 127; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (वृषाः) बलवान् (गावः इव) बैलों के समान (रेभासः) विद्वान् लोग (मनीषाः) बुद्धियों को (प्र ईरते) आगे बढ़ाते हैं। (अमोत) हे बन्धनरहित ! (अमोत) हे मुक्त मनुष्य ! (एषाम्) इन [विद्वानों] के (पुत्रकाः) पुत्र (गाः) विद्याओं और भूमियाँ को (इव) अवश्य (आसते) सेवते हैं ॥॥

    भावार्थ - जैसे बलवान् बैल आगे बढ़ते जाते हैं, मनुष्य विघ्नों से मुक्त होकर बुद्धि को अनेक प्रकार बढ़ावें और सन्तान आदि को योग्य विद्वान् और राज्याधिकारी बनावें ॥॥

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