अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 134/ मन्त्र 1
सूक्त -
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - निचृत्साम्नी पङ्क्तिः
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
इ॒हेत्थ प्रागपा॒गुद॑ग॒धरा॒गरा॑ला॒गुद॑भर्त्सथ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । इत्थ॑ । प्राक् । अपा॒क् । उद॑क् । अ॒ध॒राक् । अरा॑लअ॒गुदभर्त्सथ ॥१३४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इहेत्थ प्रागपागुदगधरागरालागुदभर्त्सथ ॥
स्वर रहित पद पाठइह । इत्थ । प्राक् । अपाक् । उदक् । अधराक् । अरालअगुदभर्त्सथ ॥१३४.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 134; मन्त्र » 1
विषय - बुद्धि बढ़ाने का उपदेश।
पदार्थ -
(इह) यहाँ (इत्थ) इस प्रकार (प्राक्) पूर्व में, (अपाक्) पश्चिम में, (उदक्) उत्तर में और (अधराक्) दक्षिण में−(अरालागुदभर्त्सथ) हिंसा की गति का धिक्कारनेवाला परमात्मा है ॥१॥
भावार्थ - परमात्मा को सब स्थान और सब काल में वर्तमान जानकर मनुष्य हिंसाकर्म से बचे ॥१॥
टिप्पणी -
[पदपाठ के लिये सूचना सूक्त १२७ देखो ॥]इस मन्त्र का मिलान करो-अथ० २०।१२०।१ ॥ १−(इह) अत्र (इत्थ) इत्थम्। अनेन प्रकारेण (प्राक्, अपाक्, उदक्) अथ० २०।१२०।१। (अधराक्) नीच्यां दक्षिणस्यां दिशि (अरालागुदभर्त्सथ) स्थाचतिमृजेरालज्०। उ० १।११६। ऋ हिंसायाम्-आलच्+अग गतौ-उदच् प्रत्ययः यथा अर्बुदशब्दे+शीङ्शपिरु०। उ० ३।११३। भर्त्स तर्जने-अथ प्रत्ययः। सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। विभक्तेर्लुक्। अराल-अगुद-भर्त्सथः। हिंसागतितिरस्कर्ता परमेश्वरः ॥