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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 134

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 134/ मन्त्र 6
    सूक्त - देवता - प्रजापतिः छन्दः - निचृत्साम्नी पङ्क्तिः सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    इ॒हेत्थ प्रागपा॒गुद॑ग॒धरा॒गक्ष्लिली॒ पुच्छिली॑यते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒ह । इत्थ॑ । प्राक् । अपा॒क् । उद॑क् । अ॒ध॒राक्ऽअक्ष्लि॑ली । पुच्छिली॑यते ॥१३४.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इहेत्थ प्रागपागुदगधरागक्ष्लिली पुच्छिलीयते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इह । इत्थ । प्राक् । अपाक् । उदक् । अधराक्ऽअक्ष्लिली । पुच्छिलीयते ॥१३४.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 134; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (इह) यहाँ (इत्थ) इस प्रकार (प्राक्) पूर्व में, (अपाक्) पश्चिम में, (उदक्) उत्तर में और (अधराक्) दक्षिण में−(अक्ष्लिली) व्यवहार ग्रहण करनेवाली बुद्धि (पुच्छिलीयते) प्रसन्न होती है ॥६॥

    भावार्थ - मनुष्य अपनी बुद्धि को सब कामों में प्रविष्ट करके प्रसन्न रहें ॥६॥

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