अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 142/ मन्त्र 2
प्र बो॑धयोषो अ॒श्विना॒ प्र दे॑वि सूनृते महि। प्र य॑ज्ञहोतरानु॒षक्प्र मदा॑य॒ श्रवो॑ बृ॒हत् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । बो॒ध॒य॒ । उ॒ष॒: । अ॒श्विना॑ । प्र । दे॒वि॒ । सू॒नृ॒ते॒ । म॒हि॒ ॥ प्र । य॒ज्ञ॒ऽहो॒त॒: । आ॒नु॒षक् । प्र । मदा॑य । श्रव॑: । बृ॒हत् ॥१४२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र बोधयोषो अश्विना प्र देवि सूनृते महि। प्र यज्ञहोतरानुषक्प्र मदाय श्रवो बृहत् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । बोधय । उष: । अश्विना । प्र । देवि । सूनृते । महि ॥ प्र । यज्ञऽहोत: । आनुषक् । प्र । मदाय । श्रव: । बृहत् ॥१४२.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 142; मन्त्र » 2
विषय - दिन और राति के उत्तम प्रयोग का उपदेश।
पदार्थ -
(उषः) हे उषा ! [प्रभात वेला] (अश्विनौ) दोनों अश्वी [व्यापक दिन-राति] को (प्र बोधय) जगादे, (देवि) हे देवी ! [व्यवहारकुशल] (सूनृते) हे अन्नवाली ! (महि) हे पूजनीया ! [उषा] (प्र=प्र बोधय) जगादे। (यज्ञहोतः) हे उत्तम संगति देनेवाले ! [विद्वान्] (आनुषक्) लगातार (प्र) जगादे, (बृहत्) बड़े (श्रवः) यश के लिये और (मदाय) आनन्द के लिये (प्र) जगादे ॥२॥
भावार्थ - मनुष्य प्रातःकाल उठकर सदा अन्न आदि धन, कीर्ति और आनन्द के लिये प्रयत्न करें ॥२॥
टिप्पणी -
२−(प्र बोधय) जागरय (उषः) हे प्रभातवेले (अश्विनौ) व्यापकौ। अहोरात्रौ (प्र) प्र बोधय (देवि) हे व्यवहारकुशले (सूनृते) अथ० ३।१२।२। सूनृता यज्ञनाम-निघ० २।७, अर्शआद्यच्, टाप्। हे अन्नवति (महि) हे महति (प्र) प्र बोधय (यज्ञहोतः) हे उत्तमसंगतिदातः। विद्वन् (आनुषक्) अथ० ४।३२।१। अनुषक्तं निरन्तरम् (प्र) प्र बोधय (मदाय) हर्षाय (श्रवः) विभक्तेर्लुक्। श्रवसे। यशसे (बृहत्) बृहते। महते ॥