अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 142/ मन्त्र 5
प्र द्यु॒म्नाय॒ प्र शव॑से॒ प्र नृ॒षाह्या॑य॒ शर्म॑णे। प्र दक्षा॑य प्रचेतसा ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । द्यु॒म्नाय॑ । प्र । शव॑से । प्र । नृ॒ऽसह्या॑य । शर्म॑णे ॥ प्र । दक्षा॑य । प्र॒ऽचे॒त॒सा॒ ॥१४२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र द्युम्नाय प्र शवसे प्र नृषाह्याय शर्मणे। प्र दक्षाय प्रचेतसा ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । द्युम्नाय । प्र । शवसे । प्र । नृऽसह्याय । शर्मणे ॥ प्र । दक्षाय । प्रऽचेतसा ॥१४२.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 142; मन्त्र » 5
विषय - दिन और राति के उत्तम प्रयोग का उपदेश।
पदार्थ -
[तब] (प्रचेतसा) हे उत्तम ज्ञान देनेवाले ! तुम दोनों (द्युम्नाय) चमकते हुए यश के लिये (प्र=प्रभवथः) समर्थ होते हो, (शवसे) बल के लिये (प्र) समर्थ होते हो, (नृषह्याय) मनुष्यों को सहाय देनेवाले (शर्मणे) शरण [घर आदि] के लिये (प्र) समर्थ होते हो, और (दक्षाय) चतुराई [कार्यकुशलता] के लिये (प्र) समर्थ होते हो ॥॥
भावार्थ - मनुष्य दिन-राति तत्त्व का ग्रहण करके यशस्वी, बलवान् और कार्यकुशल होवें ॥४-६॥
टिप्पणी -
−(प्र) प्रभवथः। समर्थौ भवथः (द्युम्नाय) द्योतमानाय यशसे (प्र) प्रभवथः (शवसे) बलाय (प्र) प्रभवथः (नृषह्याय) शकिसहोश्च। पा० ३।१।९९। षह क्षमायां-यत्, सहितायां दीर्घः। नॄणां सहायाय (शर्मणे) गृहाय। शरणाय (प्र) प्रभवथः (दक्षाय) दक्षत्वाय। कार्यकुशलत्वाय (प्रचतसा) हे प्रकृष्टज्ञानप्रदौ ॥