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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 142

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 142/ मन्त्र 4
    सूक्त - शशकर्णः देवता - अश्विनौ छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सूक्त १४२

    यदापी॑तासो अं॒शवो॒ गावो॒ न दु॒ह्र ऊध॑भिः। यद्वा॒ वाणी॒रनु॑षत॒ प्र दे॑व॒यन्तो॑ अ॒श्विना॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । आऽपी॑तास: । अं॒शव॑: । गाव॑: । न । दु॒ह्रे । ऊध॑ऽभि: ॥ यत् । वा॒ । वाणी॑: । अनू॑षत । प्र । दे॒व॒ऽयन्त॑: । अ॒श्विना॑ ॥१४२.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदापीतासो अंशवो गावो न दुह्र ऊधभिः। यद्वा वाणीरनुषत प्र देवयन्तो अश्विना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । आऽपीतास: । अंशव: । गाव: । न । दुह्रे । ऊधऽभि: ॥ यत् । वा । वाणी: । अनूषत । प्र । देवऽयन्त: । अश्विना ॥१४२.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 142; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (यत्) जब (आपीतासः) अच्छे प्रकार पीये हुए (अंशवः) बटे हुए सोम रस [तत्त्व रस] (दुह्रे) दुहे जाते हैं, (गावः न) जैसे गौएँ (ऊधभिः) लेवाओं [अयनों, थनों के स्थानों] से [दूध दुहती हैं]। (वा) और (यत्) जब (देवयन्तः) दिव्य गुण चाहनेवाले लोग (वाणीः) वाणियों से (अश्विना) दोनों अश्वी [व्यापक दिन-राति] को (प्र) अच्छे प्रकार (अनूषत) सराहते हैं ॥४॥

    भावार्थ - मनुष्य दिन-राति तत्त्व का ग्रहण करके यशस्वी, बलवान् और कार्यकुशल होवें ॥४-६॥

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