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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 35

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 35/ मन्त्र 10
    सूक्त - नोधाः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३५

    अ॒स्येदे॒व शव॑सा शु॒षन्तं॒ वि वृ॑श्च॒द्वज्रे॑ण वृ॒त्रमिन्द्रः॑। गा न व्रा॒णा अ॒वनी॑रमुञ्चद॒भि श्रवो॑ दा॒वने॒ सचे॑ताः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्य । इत् । ए॒व । शव॑सा । शु॒षन्त॑म् । वि । वृ॒श्च॒त् । वज्रे॑ण । वृ॒त्रम् । इन्द्र॑: ॥ गा: । न । व्रा॒णा: । अ॒वनी॑: । अ॒मु॒ञ्च॒त् । अ॒भि। श्रव॑: । दा॒वने॑ । सऽचे॑ता ॥३५.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्येदेव शवसा शुषन्तं वि वृश्चद्वज्रेण वृत्रमिन्द्रः। गा न व्राणा अवनीरमुञ्चदभि श्रवो दावने सचेताः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्य । इत् । एव । शवसा । शुषन्तम् । वि । वृश्चत् । वज्रेण । वृत्रम् । इन्द्र: ॥ गा: । न । व्राणा: । अवनी: । अमुञ्चत् । अभि। श्रव: । दावने । सऽचेता ॥३५.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 35; मन्त्र » 10

    पदार्थ -
    (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले सेनापति] ने (अस्य) इस [परमेश्वर] के (इत् एव) ही (शवसा) बल से (शुषन्तम्) सुखानेवाले (वृत्रम्) वैरी को (वज्रेण) वज्र [बिजुली आदि शस्त्र] द्वारा (वि वृश्चत्) छेद डाला। और (श्रवः अभि) कीर्ति के निमित्त (दावने) सुख दान के लिये (सचेताः) चित्तवाला होकर (व्राणाः) घिरी हुई (अवनीः) रक्षा योग्य भूमियों को (गाः न) गौओं के समान (अमुञ्चत्) छुड़ाया ॥१०॥

    भावार्थ - राजा परमेश्वर का आश्रय लेकर दुःखदायी शत्रुओं का नाश करके प्रजा को कष्ट से छुड़ाकर और कीर्ति पाकर सुख का दान करे, जैसे ग्वाला गौओं को बन्धन से खोलकर सुखी करके वन में चराता हैं ॥१०॥

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