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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 35

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 35/ मन्त्र 5
    सूक्त - नोधाः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३५

    अ॒स्मा इदु॒ सप्ति॑मिव श्रव॒स्येन्द्रा॑या॒र्कं जु॒ह्वा॒ सम॑ञ्जे। वी॒रं दा॒नौक॑सं व॒न्दध्यै॑ पु॒रां गू॒र्तश्र॑वसं द॒र्माण॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस्मै॑ । इत् । ऊं॒ इति॑ । सप्ति॑म्ऽइव । अ॒व॒स्‍या । इन्द्रा॑य । अ॒र्कम् । जु॒ह्वा॑ । सम् । अ॒ञ्जे॒ ॥ वी॒रम् । दा॒नऽओ॑कसम् । व॒न्दध्यै॑ । पु॒राम् । गू॒र्तऽश्र॑वसम् । द॒र्माण॑म् ॥३५.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मा इदु सप्तिमिव श्रवस्येन्द्रायार्कं जुह्वा समञ्जे। वीरं दानौकसं वन्दध्यै पुरां गूर्तश्रवसं दर्माणम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मै । इत् । ऊं इति । सप्तिम्ऽइव । अवस्‍या । इन्द्राय । अर्कम् । जुह्वा । सम् । अञ्जे ॥ वीरम् । दानऽओकसम् । वन्दध्यै । पुराम् । गूर्तऽश्रवसम् । दर्माणम् ॥३५.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 35; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (अस्मै) इस [संसार] के हिते के लिये (इत्) ही (उ) विचारपूर्वक (इन्द्राय) ऐश्वर्य के अर्थ (श्रवस्या) कीर्ति की इच्छा से (जुह्वा) देने-लेने वाली क्रिया के साथ (सप्तिम् इव) जैसे फुरतीले घोड़े को [वैसे] (अर्कम्) पूजनीय (वीरम्) वीर, (दानौकसम्) दान के घर [बड़े दानी], (गूर्तश्रवसम्) उद्यमयुक्त यशवाले, (पुराम्) शत्रुओं के गढ़ों के (दर्माणम्) ढानेवाले [सभापति] को (वन्दध्यै) सत्कार करने के लिये (सम्) अच्छे प्रकार (अञ्जे) मैं चाहता हूँ ॥॥

    भावार्थ - जैसे फुरतीले घोड़े को चढ़ने और रथ आदि ले चलने के लिये चाहते हैं, वैसे ही मनुष्य शुभगुण वाले महाकीर्तिमान् पुरुषार्थी जन को संसार के हित के लिये आदर से चाहते हैं ॥॥

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