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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 56

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 56/ मन्त्र 2
    सूक्त - गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-५६

    असि॒ हि वी॑र॒ सेन्यो॑ऽसि॒ भूरि॑ पराद॒दिः। असि॑ द॒भ्रस्य॑ चिद्वृ॒धो य॑जमानाय शिक्षसि सुन्व॒ते भूरि॑ ते॒ वसु॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    असि॑ । हि । वी॒र॒: । सेन्य॑: । असि॑ । भूरि॑ । प॒रा॒ऽद॒दि: ॥ असि॑ । द॒भ्रस्य॑ । चि॒त् । वृ॒ध: । यज॑मानाय । शि॒क्ष॒सि॒ । सुन्व॒ते । भूरि॑ । ते॒ । वसु॑ ॥५६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असि हि वीर सेन्योऽसि भूरि पराददिः। असि दभ्रस्य चिद्वृधो यजमानाय शिक्षसि सुन्वते भूरि ते वसु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असि । हि । वीर: । सेन्य: । असि । भूरि । पराऽददि: ॥ असि । दभ्रस्य । चित् । वृध: । यजमानाय । शिक्षसि । सुन्वते । भूरि । ते । वसु ॥५६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 56; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (वीर) हे वीर तू (हि) ही (सेन्यः) सेनाओं का हितकारी (असि) है, (भूरि) बहुत प्रकार से (पराददिः) शत्रुओं का पकड़नेवाला (असि) है। तू (दभ्रस्य) छोटे पुरुष का (चित्) अवश्य (वृधः) बढ़ानेवाला (असि) है, तू (सुन्वते) तत्त्व निचोड़नेवाले (यजमानाय) यजमान को (ते) अपना (भूरि) बहुत (वसु) धन (शिक्षसि) देता है ॥२॥

    भावार्थ - वीर सेना हितकारी योग्य छोटे अधिकारियों को बढ़ाकर श्रेष्ठों का मान करे ॥२॥

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