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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 56

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 56/ मन्त्र 5
    सूक्त - गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-५६

    मा॒दय॑स्व सु॒ते सचा॒ शव॑से शूर॒ राध॑से। वि॒द्मा हि त्वा॑ पुरू॒वसु॒मुप॒ कामा॑न्त्ससृ॒ज्महेऽथा॑ नोऽवि॒ता भ॑व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा॒दय॑स्व । सु॒ते । सचा॑ । शव॑से । शू॒र॒ । राध॑से ॥ वि॒द्म । हि । त्वा॒ । पु॒रु॒ऽवसु॑म् । उप॑ । कामा॑न् । स॒सृ॒ज्महे॑ । अथ॑ । न॒: । अ॒वि॒ता । भ॒व॒ ॥५६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मादयस्व सुते सचा शवसे शूर राधसे। विद्मा हि त्वा पुरूवसुमुप कामान्त्ससृज्महेऽथा नोऽविता भव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मादयस्व । सुते । सचा । शवसे । शूर । राधसे ॥ विद्म । हि । त्वा । पुरुऽवसुम् । उप । कामान् । ससृज्महे । अथ । न: । अविता । भव ॥५६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 56; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (शूर) हे शूर ! (सुते) उत्पन्न जगत् में (सचा) नित्य मेल के साथ (शवसे) बल के लिये और (राधसे) धन के लिये (मादयस्व) आनन्द दे। (त्वा) तुझको (हि) निश्चय करके (पुरुवसुम्) बहुतों में श्रेष्ठ (विद्म) हम जानते हैं, और (कामान्) मनोरथों को (उप) समीप से (ससृज्महे) हम सिद्ध करते हैं, (अथ) इसलिये तू (नः) हमारा (अविता) रक्षक (भव) हो ॥॥

    भावार्थ - बल और धन की वृद्धि के लिये शूर सेनापति के आश्रय से मनोरथ सिद्ध करके रक्षा करे ॥॥

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