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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 74

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 74/ मन्त्र 7
    सूक्त - शुनःशेपः देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः सूक्तम् - सूक्त-७४

    सर्वं॑ परिक्रो॒शं ज॑हि ज॒म्भया॑ कृकदा॒श्वम्। आ तू न॑ इन्द्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सर्व॑म् । प॒रि॒ऽक्रो॒शम् । ज॒हि॒ । ज॒म्भय॑ । कृ॒क॒दा॒श्व॑म् ॥ आ । तु । न॒: । इ॒न्द्र॒ । शं॒स॒य॒ । गोषु॑ । अश्वे॑षु । शु॒भ्रिषु॑ । स॒हस्रे॑षु । तु॒वि॒ऽम॒घ॒ ॥७४.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सर्वं परिक्रोशं जहि जम्भया कृकदाश्वम्। आ तू न इन्द्र शंसय गोष्वश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीमघ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सर्वम् । परिऽक्रोशम् । जहि । जम्भय । कृकदाश्वम् ॥ आ । तु । न: । इन्द्र । शंसय । गोषु । अश्वेषु । शुभ्रिषु । सहस्रेषु । तुविऽमघ ॥७४.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 74; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    [हे राजन् !] (सर्वम्) प्रत्येक (परिक्रोशम्) निन्दक, (कृकदाश्वम्) कष्ट देनेवाले को (जहि) पहुँच और (जम्भय) मार डाल। (तुविमघ) हे महाधनी (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े प्रतापी राजन्] (तु) निश्चय करके (नः) हमको (सहस्रेषु) सहस्रों (शुभ्रिषु) शुभ गुणवाले (गोषु) विद्वानों और (अश्वेषु) कामों में व्यापक बलवानों में (आ) सब ओर से (शंसय) बड़ाईवाला कर ॥७॥

    भावार्थ - राजा गुणों में दोष लगानेवाले कुचाली हिंसकों को नष्ट करके प्रजा को सब प्रकार सुखी रक्खे ॥७॥

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