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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 88

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 88/ मन्त्र 2
    सूक्त - वामदेवः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-८८

    धु॒नेत॑यः सुप्रके॒तं मद॑न्तो॒ बृह॑स्पते अ॒भि ये न॑स्तत॒स्रे। पृष॑न्तं सृ॒प्रमद॑ब्धमू॒र्वं बृह॑स्पते॒ रक्ष॑तादस्य॒ योनि॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धु॒नऽइ॑तय: । सु॒ऽप्र॒के॒तम् । मद॑न्त: । बृह॑स्पते । अ॒भि । ये ।न॒: । त॒त॒स्रे ॥ पृष॑न्तम् । सृ॒प्रम् । अद॑ब्धम् । ऊ॒र्वम् । बृह॑स्पते । रक्ष॑ताम् । अ॒स्य॒ । योनि॑म् ॥८८.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धुनेतयः सुप्रकेतं मदन्तो बृहस्पते अभि ये नस्ततस्रे। पृषन्तं सृप्रमदब्धमूर्वं बृहस्पते रक्षतादस्य योनिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धुनऽइतय: । सुऽप्रकेतम् । मदन्त: । बृहस्पते । अभि । ये ।न: । ततस्रे ॥ पृषन्तम् । सृप्रम् । अदब्धम् । ऊर्वम् । बृहस्पते । रक्षताम् । अस्य । योनिम् ॥८८.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 88; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (बृहस्पते) हे बृहस्पति ! [बड़ी विद्याओं के रक्षक] (ये) जिन (धुनेतयः) शीघ्र गतिवाले, (सुप्रकेतम्) सुन्दर ज्ञान से (मदन्तः) प्रसन्न होते हुए [विद्वानों ने] (नः) हमको (अभि) सब ओर (ततस्रे) फैलाया है [प्रसिद्ध किया है]। (बृहस्पते) हे बृहस्पति ! [बड़े गुणों के स्वामी] (पृषन्तम्) सींचनेवाले, (सृप्रम्) ज्ञानवाले, (अदब्धम्) नष्ट न किये हुए, (ऊर्वम्) दोषनाशक (अस्य) उन [विद्वानों] के (योनिम्) कारण [वेदशास्त्र] को (रक्षतात्) तू रक्षित रख ॥२॥

    भावार्थ - जिस वेदज्ञान में महात्मा लोग मग्न होकर दूसरों को सुख पहुँचाते हैं, विद्वान् लोग उस वेद की रक्षा करके अर्थात् आज्ञा में चलकर आनन्द पावें ॥२॥

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